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________________ प्रध्याय 61 मथुरा उपलब्ध पायाग-पटों में से अधिकतर, जिनका स्वयं अपना एक वर्ग बन गया है कनिष्क-पूर्व युग के माने गये हैं किन्तु कुछ आयाग-पट निस्संदेह कुषाणयुग के हैं। इनमें से अधिकांश उत्कृष्ट शिल्पांकनयुक्त हैं। उपास्य निर्मितियों को विलक्षण शिल्प-सौंदर्य (चित्र १४) से अलंकृत करने के लिए, तथा विदेशी कलाबोध से प्रेरित, अनेकों कला-प्रतीकों की संरचना में कलाकार का कौशल स्पष्ट परिलक्षित होता है । इन आयाग-पटों का धार्मिक स्वरूप केवल उपलब्ध शिलालेखों से ही स्पष्ट नहीं होता (जिनमें कि अर्हतों की पूजा के लिए आयाग-पटों की स्थापना का उल्लेख किया गया है), अपितु, स्तूपों (चित्र १ तथा २ ख), तीर्थंकर-मूर्तियों (चित्र १४ और १५), चैत्य-वृक्ष, धर्मचक्र (चित्र १६) तथा अष्ट-मंगल सहित जैन मांगलिक प्रतीकों के शिल्पांकनों से भी स्पष्ट हो जाता है। जैसा कि शाह ने कहा है, इन आयाग-पटों का पूर्व-रूप पुढवी-शिलापट्ट (पृथ्वी-शिला-पट्ट) रहा होगा, जो ग्रामीण लोक-देवताओं, यक्षों और नागों के लिए पवित्र वृक्ष-चैत्यों के नीचे किसी लघ पीठिका के ऊपर रखा गया होगा । आद्य शिल्पांकनों में भक्तगण वृक्षों के नीचे इस प्रकार की वेदियों की पूजा करते हुए मिलते हैं। इस प्रकार की वेदियाँ अत्यंत पवित्र मानी जाती थीं, क्योंकि वे अदृश्य देवताओं का पावन आसन होती थीं एवं उनकी शारीरिक रूप में उपस्थिति का प्रतीक समझी जाती थीं। अदृश्य देवताओं की पूजा स्थानीय लोग किया करते थे, जो इन वेदियों पर अनेक प्रकार के चढ़ावे और भेंट, जिनमें पुष्प-पत्रादि भी सम्मिलित होते थे, अर्पित किया करते थे। लोकदेवताओं की पूजा अत्यंत प्राचीनकाल से प्रचलित है और अब भी भारत के अनेक भागों में ग्रामदेवताओं की उपासना के रूप में जीवित है। पायाग-पटों पर तीर्थंकरों तथा स्तूपों का निरूपण इस बात को सिद्ध करता है कि वेदियों या पीठों पर स्थापित ये शिलापट्ट केवल अर्घ्यपट्टों या बलि-पट्टों के रूप में ही काम नहीं देते थे, जहाँ तीर्थंकरों तथा स्तूपों की पूजा करने के लिए पत्र-पुष्पादि तथा चढ़ावे और भेंट की अन्य वस्तुएं अर्पित की जाती थीं, जैसा कि विशद्ध प्रालंकारिक शिलापट्टों के साथ होता था, वरन ये निरूपण इस बात की ओर भी संकेत करते हैं कि ये आयाग-पट भी, देव-निर्मित स्तुप में स्थापित प्रत की मूर्ति की ही भाँति, पूज्य थे। विचाराधीन तोरण-शीर्ष पर अंकित स्तूप के सम्मख दो पायागपटों पर पुष्प वर्षा का जिस ढंग से चित्रण किया गया है उससे इस धारणा की पुष्टि होती है। 1 शाह, पूर्वोक्त, पृ 109-12. / अग्रवाल (वी एस). अष्टमंगलक माला. जर्नल प्रॉफ दि इण्डियन सोसाइटी प्रॉफ मोरिएण्टल आर्ट, न्यू सीरीज.2; 1967-68; 1-3. 2 शाह, पूर्वोक्त, पृ 69. 3 इस सबंध में बूलर के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं : पायाग शब्द रामायण 1, 32, 12 (बम्बई संस्करण) में प्रयुक्त किया गया है, और टीकाकार ने इसकी व्याख्या याजनीय देवता, एक देवता जिसकी पूजा की जानी चाहिए, अर्थात् श्रद्धा एवं सम्मान की एक वस्तु के रूप में की है. एपिग्राफिया इण्डिका. 1; 396, टिप्पणी क्र. 28. 67 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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