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________________ वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 ई० पू० से 300 ई० [ भाग 2 है।। सांची के सदृश इन स्तंभों के दो पार्श्व नीचे से ऊपर की ओर अनेक फलकों में विभक्त हैं और वेदिका-प्रतीकों द्वारा एक दूसरे से पृथक किये हए हैं। इन फलकों की विषय-वस्तु अधिकांशतः ऐहिक है, जिसमें प्रेमक्रीड़ा के दृश्य, राजभवनों का जीवन, मद्यपान करते हुए युगल, नारी का केशविन्यास करता हुआ पुरुष, अपना श्रृंगार करती हुई नारी, नृत्य-रत युगल इत्यादि दिखाये गये हैं; किन्तु धार्मिक दृश्यों का भी, जिनमें पुष्प एवं पुष्पमाल ले जाते हुए नर-नारी शिल्पांकित किये गये हैं पूर्णतः अभाव नहीं है । ऐहिक दृश्यों का चित्रण सर्वदा ही स्तंभोंवाला मण्डप है जो सभी पावों से खुला हुअा है तथा जिसकी छत अर्द्धबेलनाकार है; छत के दो अर्द्धवृत्ताकार सिरों में चैत्यतोरण अंकित किये गये हैं । छत के आधार-स्तंभों का मध्यदण्ड नीचे वर्गाकार और ऊपर अष्टभुजाकार है, जिनमें से कुछ में नुकीले कोनों को ढलवाँ बनाया हुआ है। दण्ड के ऊपर एक प्रक्षिप्त खण्ड है जिसपर कमल की पंखुड़ियाँ बनी हुई हैं और जो शीर्ष-फलक को सहारा दिये हुए है जिस पर पंखधारी सिंह बैठे हुए हैं। सिंहों के ऊपर शनैः शनैः विस्तार को प्राप्त होता हुआ एक प्रखंड है जिसके शीर्ष के कोने कुण्डलित हैं। इस प्रकार के कई स्तंभ कंकाली-टीले में मिले हैं। दो मण्डप एक कमल-सरोवर से संबद्ध हैं, जो स्पष्टतः अभिजात-वर्ग की जल-क्रीड़ा के लिए था। इन दृश्यों का अंकन प्रशंसनीय है। धार्मिक संस्कारों से बाधित न रहकर, कलाकार ने विभिन्न मुद्राओं तथा क्रियाओं में रत स्त्री-पुरुषों का चित्रण करने में अपना कौशल प्रदर्शित किया है। तोरणों के अन्य उपांगों में, सरदलों के मध्य स्थापित उत्कीर्ण शिलाखण्ड, तोरण-स्तंभों के सिंह-शीर्ष और शिखर-खण्ड मिले थे। इनमें से एक लुप्तप्राय चक्र को थामे हुए त्रि-रत्न (या नन्दिपद) हैं जो संभवतया शिखर-खण्ड हैं। एक विलक्षणता यह है कि वृत्ताकार भाग के ऊपर इनमें से एक त्रि-रत्न (या नन्दिपद) के ऊपरी भाग में मत्स्य-पुच्छवाले दो मकर बने हुए हैं। मंदिर तथा विहार जैसा कि पहले बताया जा चुका है (पृष्ठ ५४), पुरालेखीय साक्ष्यों तथा प्राप्त मूर्तियों से इस बात का संकेत मिलता है कि ईसा-पूर्व द्वितीय शताब्दी में और उसके पश्चात् जैन मंदिर विद्यमान थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि जैन मुनियों के निवास के लिए विहार भी थे। तथापि, उपलब्ध साक्ष्यों से इन भवनों का इतिहास लिखना संभव नहीं है। यह भी ज्ञात नहीं कि प्राचीनतम जैन-विहार अर्द्धवृत्ताकार था, जैसा कि उदयगिरि में है (अध्याय ७) अथवा अण्डाकार या चतुर्भुजाकार था। मथुरा के कुषाणयुगीन बौद्ध शिल्पांकनों में अर्द्धवृत्ताकार और चतुर्भुजाकार मंदिरों का चित्रण किया गया है। अधिकतर संभावना इस बात की है कि मंदिर, कक्ष और 1 रा० सं०ल० जे-532./ल्यूडर्स, पूर्वोक्त, क्रमांक 108. 2 स्मिथ, पूर्वोक्त, चित्र 40 और 52. 3 वोगेल ( जे फ ). ला स्कल्पचर डि मथुरा. 1930. पेरिस तथा ब्रसेल्स. चित्र 23 क और ग. इस चित्र की संख्या क वाली उत्कीर्ण आकृति में एक प्राकार-भित्ति के भीतर एक मठ का भी चित्रण किया गया है. प्रवेशद्वार 64 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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