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(११)
१. आचारांग
२. सूत्रकृतांग ३. स्थानांग
४. समवायांग ५. भगवती सूत्र
६. औपपातिक ७. उत्तराध्ययन
८. दशवकालिक ९. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति
१०. कल्पसूत्र। इन १० आगमों में कहीं-कहीं धर्मकथानुयोग के अध्ययन, शतक, उद्देशक तथा गद्य-पद्य पाठ हैं। शेष आगमों में धर्मकथानुयोग नहीं है।
प्रारम्भ में यह संकल्प रहा कि इन सब आगमों के मूलपाठ शुद्ध करने के लिए प्रयत्न किया जाय । बाद में धर्मकथाओं का संकलन एवं वर्गीकरण किया जाय ।।
इस कार्य के लिए विभिन्न प्रकाशन संस्थाओं से प्रकाशित एक-एक आगम की पांच-पांच प्रतियाँ एकत्रित की गई और सर्वप्रथम मूलपाठ मिलाने का कार्य प्रारम्भ किया गया।
इस कार्य में नीचे लिखी समस्याएँ सामने आईं :
१. प्रत्येक आगम की विभिन्न प्रतियों के सूत्रांक विभिन्न थे। किस प्रति के सूत्रांक सही हैं और किसके गलत हैं ? इसका निर्णय करना अत्यन्त कठिन प्रतीत हुआ क्योंकि सूत्रांक देने का मानक कहीं से प्राप्त नहीं हुआ है।
२. वाचनान्तर के पाठों में से किस वाचना के पाठ को प्रमुख स्थान देना और किस वाचना के पाठ को गौण मानकर कहाँ स्थान देना? मेरे जैसे अल्पज्ञ के लिए यह निर्णय करना असंभव सा हो गया।
३. प्रत्येक आगम की विभिन्न प्रतियों में संक्षिप्त वाचना सूचक 'जाव' आदि वाक्य असमान लगे हुए हैं।
४. किसी प्रति में 'जाव' आदि वाक्य उचित आवश्यक स्थान पर भी नहीं हैं और किसी प्रति में अनुचित अनावश्यक स्थान पर भी जाव आदि वाक्य हैं।
५. संक्षिप्त वाचना सूचक वाक्यों के अनुसार कितना पाठ किस आगम से लेना-इसका निर्णय करने में इतना समय व्यतीत हो जाता है कि कार्य से मन विरत होने लगता है। क्योंकि समय और श्रम लगने पर भी कार्य नगण्य हो पाता है।
६. आगमों की प्रतियों में अनेक जगह एक-एक वाक्यांश के आगे (०) शून्य सूचक बिन्दु लगे अनेक पाठ मिलते हैं।
शुन्य बिन्दु से कितना पाठ किस प्रति से लेकर उसकी पूर्ति करना, कितना श्रम साध्य है? क्योंकि पूरे पाठवाली प्रतियाँ अनुपलब्ध हैं।
किसी प्रति में शून्य बिन्दु है और किसी में नहीं है-ऐसा पाठ देखकर दुविधा हो जाती है।
७. किसी प्रति में एक पाठ मिलता है तो किसी प्रति में उसी पाठ का पाठान्तर मिलता है। प्रस्तुत संकलन में पाठ लेना या पाठान्तर लेना- यह भी कठिन समस्या है।
८. किसी प्रति में कुछ गाथाएँ या कुछ गद्यपाठ अधिक मिलता है तो किसी प्रति में कम मिलता है।
९. संक्षिप्त वाचना सूचक “जाव" आदि प्रायः कथा के आधे वाक्य के आगे लगे हुए होते हैं और 'जाव' आदि के आगे भी कथा का आधा वाक्य रहता है। इससे कथा का क्रम टूट जाता है इसलिए संक्षिप्त वाचना सूचक वाक्यों का इस प्रकार प्रयोग होजिससे कथा का क्रम न टूटे, अनुवाद भी रोचक हो और पाठक को धर्मकथा का पूर्वापर सम्बन्ध समझने में सुविधा हो ।
एक ओर इन सब समस्याओं को सुलझाकर मूलपाठ को व्यवस्थित करने का कार्य द्रौपदी के चीर की तरह लम्बा लम्बा होता गया।
__दूसरी ओर गुरुदेवों का वियोग, संकलन एवं वर्गीकरण के कार्य में सक्रिय सहयोग देने वाले सहयोगियों का अभाव । लम्बेलम्बे विहार, प्रतिदिन व्याख्यान देना और दर्शनार्थियों का आवागमन बना रहने से अनुयोग लेखन कार्य योग्य समय का अभाव होता गया। इस प्रकार बहुत लम्बे समय तक अनुयोग लेखन अवरुद्ध-सा रहा।
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