SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [७४] जीव इस बोधको अपने आत्मामें स्थिर करेंगे वे निकटभवी उनकी आज्ञाके आराधक बनकर भवका अंत करेंगे इसमें संदेह नहीं है। परंतु अपनी मतिसे इससे अन्यथा करेंगे तो अनादिसे परमार्थ मार्गके विराधक तो हैं ही। किसी महा भाग्योदयसे सत्य बात कहनेवाले ज्ञानीपुरुषका योग मिला वहाँ भी उनके बोधरहस्यको गौण कर, अपनी बुद्धिको प्रधान करके चलेंगे तो ज्ञानीकी आज्ञाके विराधक बनकर अनन्त संसार बढ़ा देंगे, वे तो ज्ञानीकी दृष्टिमें दयापात्र ही मानने योग्य हैं। दक्षिणमें श्री बाहुबलिजी आदि स्थानोंकी यात्रा कर वहाँसे श्री हीरालाल झवेरीकी भावनासे उनके साथ, उनके यहाँ पेथापुरमें दो मास रहकर वहाँसे सं.१९८१ के फाल्गुन वदीमें प्रभुश्री अहमदाबाद आये। नडियादके मुमुक्षुओंमेंसे किसीको उस समय पता नहीं था कि प्रभुश्री अभी कहाँ हैं? परंतु प्रभुश्रीका अंतरज्ञानप्रकाश कुछ अद्भुत था। उसके द्वारा उन्होंने देखा कि नडियादके एक मुमुक्षुभाई डाह्याभाई देसाईका अंतसमय निकट है। उन मुमुक्षुभाईने पहले आश्रममें प्रभुश्रीसे प्रार्थना की थी कि "हे प्रभु, मेरे अंतसमयमें मेरी सुध लेवें। मुझे आपका ही आसरा है।" इस वक्त उनका अंतसमय निकट जानकर प्रभुश्री सेठश्री जेसंगभाईके साथ एकाएक सुबहमें नडियाद श्री नाथाभाई अविचलभाई देसाईके यहाँ पधारे। उन्होंने प्रभुश्रीकी बहुत उल्लासभावसे भक्तिभावना की। वहाँ अन्य मुमुक्षु भी एकत्र हो गये। उनको धर्मबोध देकर वहाँसे प्रभुश्री डाह्याभाईके घरकी ओर चले। सभी मुमुक्षु भी उनके पीछे-पीछे चले । प्रभुश्री जब श्री डाह्याभाईके यहाँ पहुँच गये तभी सबको पता चला कि इस महाभाग्य मुमुक्षुको अंतसमयमें समाधिमरण-सन्मुख करानेके लिए ही वे एकाएक यहाँ पधारे हैं। जब प्रभुश्री श्री डाह्याभाईकी मृत्युशय्याके निकट पधारे तब श्री डाह्याभाई बाहरसे कुछ बेभान जैसे दीखते थे, परंतु उनके हृदयमें परमकृपालुदेवकी ही रटन थी। प्रभुश्रीने पास जाकर 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' यों दो-तीन बार उच्च स्वरसे मंत्र सुनाया और अमृतमयी दृष्टि डाली। वे तुरत भानमें आकर पलंगमें उठ बैठे, और प्रभुश्रीको देखते ही आनन्द-उल्लासमें रोगकी वेदनाको भूल गये। दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक झुकाकर अंतसमयमें दर्शन देनेके लिए आभारकी भावना प्रदर्शित की और वापस लेटकर प्रभुश्रीके बोधवचन सुननेमें उल्लाससे एकाग्रतापूर्वक लीन हो गये। वहाँ प्रभुश्रीने, देहाध्यास छूटकर वृत्ति आत्मस्वरूपमें लीन हो ऐसा सुंदर बोध एकाध घण्टेतक इतने असरकारक ढंगसे दिया कि वह पावन आत्मा उत्तरोत्तर शांत दशाको प्राप्त कर आनंद और उल्लाससहित अंतरमन होता गया। इस प्रकार उन्हें अपूर्व जागृति देकर समाधिमरणरूप अपूर्व आत्मश्रेयके सन्मुख कर प्रभुश्री बाहर निकले। सेठश्री जेसंगभाईके साथ वे वहाँसे तुरत ही नरोडा जानेके लिए विदा हो गये। उसके बाद तुरत ही श्री डाह्याभाई समाधिपूर्वक देहत्याग कर गये । 'परोपकाराय सतां विभूतयः' मानो इस सूक्तिको चरितार्थ करनेके लिए ही ये संतपुरुष आहारपानीकी चिंता किये बिना नडियादसे रवाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy