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________________ [७३] निष्पक्षपातसे एकमात्र आत्महितके लिए हम एक बात बताना चाहते हैं। इसमें न कोई हमारा स्वार्थ है, न किसीको उल्टे मार्गपर चढ़ाना है और न ही पूजा-सत्कार स्वीकारनेकी बात है। सकल संघकी साक्षीसे हम यह बात कह रहे हैं। जो भरी सभामें संघके समक्ष असत्य या ठगनेके लिए बोलता है उसको शास्त्रमें महापाप कहा गया है। ऐसे जीव गूंगे पैदा होते हैं, वाणी बंद हो जाती है, मूढ़ भी होते हैं। हम जो कहते हैं उसपर जिसे विश्वास हो वे ही खड़े हो जायें, अन्य भले अपने स्थानपर बैठे रहें। किन्तु जैसा हम कहते हैं, वैसा करना हो वे खड़े होकर कृपालुदेवके चित्रपटके आगे हाथ रखकर कहें कि संतके कहनेसे मुझे कृपालुदेवकी आज्ञा मान्य है। ___ हमारे मनमें तो ऐसा हुआ कि जो वचन हमें आत्महितका कारण हुआ वह वचन दूसरे भी सुनें, श्रद्धा करें तो कल्याण हो । अतः उनकी आज्ञा ‘सहजात्मस्वरूप परमगुरु' जो हमारे पास आये उन सबको कृपालुकी दृष्टिसे कह सुनायी। परंतु नासमझीसे कोई पोपटलालको, कोई रत्नराजको, कोई रणछोड़भाईको और कोई हमको देहदृष्टिसे पकड़ बैठे । यह विष पी रहे हो, विष! मर जाओगे। यह मार्ग नहीं है। ज्ञानी तो जो है सो है। उसकी दृष्टिसे खड़े रहोगे तो तिरनेका कुछ उपाय है। हमें मानना हो तो मानो, न मानना हो तो न मानो, परंतु जैसा है वैसा कहे देते हैं। हमने तो सोचा था कि अभी जो चलता है वैसा भले चलता रहे, समय आनेपर सब बदल देंगे। क्या हमें पुष्पहार, पूजा-सत्कार ये सब अच्छे लगते होंगे? किंतु कड़वे घुट जानबूझकर उतार जाते । अब तो छिपाये बिना स्पष्ट कहे देते हैं कि पूजाभक्ति करने योग्य ये कृपालुदेव हैं। हाँ, भले ही उपकारीका उपकार न भूलें। किसी परिचित मित्रकी भाँति उसकी छबि हो तो आपत्ति नहीं, परंतु पूजा तो इस (कृपालुदेवके) चित्रपटकी ही होनी चाहिए। अच्छा हुआ, अन्यथा कृपालुदेवके साथ इस देहकी मूर्ति भी, मंदिर बनता तब स्थापित कर देते। ऐसा नहीं करना है। बारहवें गुणस्थान तक साधक, साधक और साधक ही रहना कहा है। इधर-उधर देखा तो मर गये समझना। अब एक-एक यहाँ आकर कृपालुदेवके चित्रपटके पाट पर हाथ रखकर कहें कि 'संतके कहनेसे कृपालुदेवकी आज्ञा मुझे मान्य है।' जिसकी इच्छा हो वह आकर ऐसा कह जाय। फिर सभी क्रमशः उठकर चित्रपटके समक्ष प्रभुश्रीके कथनानुसार कहकर प्रभुश्रीको नमस्कार कर वापस बैठ गये। कुछ नये लोग भी वहाँ थे। उन्हें देखकर प्रभुश्री प्रसन्नमुख बोले___"ये भद्रिक नये लोग भी साथ-साथ लाभ ले गये। कौन जानता था? कहाँसे आ चढ़े ! टिके रहें तो काम बन जाय। हमने जो कहा है वह मार्ग यदि खोटा हो तो उसके हम जामिनदार हैं। परंतु जो स्वच्छंदसे प्रवृत्ति करेंगे और ‘यों नहीं, यों' कहकर दृष्टिफेर करेंगे उसके हम जिम्मेदार नहीं है। जिम्मेदारी लेना सरल नहीं है, किन्तु इस मार्गमें भूल नहीं है। जो कोई कृपालुदेवको मानेंगे उन्हें कुछ नहीं तो देवगति तो मिलेगी ही।" यों पर्युषण पर्वमें आठों दिन तक प्रभुश्रीने सतत एकधारा प्रवाहसे प्रबल बोध द्वारा मुमुक्षुओंकी श्रद्धा, पकड़ एक परमकृपालुदेव पर दृढ़ करवानेका अगाध परिश्रम किया और उसके बाद भी एक यही श्रद्धा दृढ़ करवानेके लिए निरंतर सतत बोध देते हुए जीवनपर्यंत अथक परिश्रम किया। जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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