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उपदेशसंग्रह - ६
श्रद्धा रहेगी उसका कल्याण होगा ।
पर्यायदृष्टि अर्थात् शरीर, मन, वचन और उनके द्वारा ग्रहीत पौद्गलिक भाव, वह मैं नहीं । पर्यायदृष्टिको छोड़नी चाहिये ।
जिस समय पर्यायदृष्टिमें उपयोग जुड़ता हो उस समय देहत्याग कर मरना अच्छा है और उपयोग आत्मदृष्टि पर जाता हो तो शरीरको रत्नकरंडके समान मानकर उसकी सँभाल लेना योग्य है ।
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घरमें आग लगने पर विचक्षण पुरुष सारभूत वस्तुओंको बाहर निकालकर, जिन्हें न बचा सके उन्हें जलने देता है; जबकि नासमझ व्यक्ति व्यर्थ वस्तुओंको निकालनेका, बचानेका प्रयत्न करता है । इसी दृष्टांतसे यह मनुष्यशरीर जो क्रोधादि भावसे जल रहा है और क्षणभंगुर है उसमेंसे रत्नत्रयरूप आत्माके तीन रत्नोंको सिद्ध ( प्राप्त) कर लेना चाहिये ।
कुछ समझमें न आये तो मेरे गुरुने कहा है, वह मुझे मान्य है, यों उपयोग रखें। अंजन आदि महापाप करनेवाले चोरोंका भी ऐसी श्रद्धासे उद्धार हुआ था । अतः वचनके प्रति अविचल प्रतीति रखनी चाहिये ।
नवसारी, मई, सं. १९९३
आस्रवमें भी संवर हो ऐसी कोई युक्ति ज्ञानीपुरुषके पास है । वे जो जो देखते हैं, जो जो करते हैं, वहाँ पहले आत्मा देखते हैं। उसके बिना तिनकेके दो टुकड़े भी नहीं हो सकते । परमकृपालुदेवने कहा है कि आत्माको छोड़कर कुछ नहीं हो सकता। मार डालो आत्माको, वह मर सकेगा ? मात्र पहचान नहीं है। जौहरीको हीरेकी पहचान है, अतः वह उसका मूल्य आँक सकता है । लकड़हारेके हाथ रत्नचिंतामणि आ जाये तो वह उसे कंकर समझकर फेंक देगा । यह मनुष्यभव रत्नचिंतामणि है। ऐसा योग पुण्यका ही फल है, वह भी चाहिये । पुण्यका योग है तो अभी इस निवृत्तियोगमें आत्माकी बात कानमें पड़ रही है और परिणमित हो रही है । परिणाम परिणाममें भी बहुत भेद है। भाव और परिणाम बार बार कहते हैं वह विचारणीय है । 'आत्मसिद्धिशास्त्र' बहुत अमूल्य है, रिद्धि-सिद्धियाँ और चमत्कारोंसे भरा हुआ है ! पर समझमें किसे आता है ? जिसे समझमें आता है उसे रिद्धि-सिद्धिकी आवश्यकता ही नहीं है । परंतु वे अपूर्व वचन हैं, विश्वास करने योग्य हैं। भले ही मुझे समझमें न आते हों, पर परमकृपालुदेवको तो समझमें आया है न? इतना विश्वास तो अवश्य कर्तव्य है । 'कर विचार तो पाम' इसमें सर्व क्रिया- ज्ञानमात्र आ जाते हैं। पर उसका माहात्म्य लगना चाहिये । विचार होना चाहिये। क्या कहें ? योग्यताकी कमी है, फिर भी उस पुरुषने तो कहने में कुछ कमी नहीं रखी है।
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"छूटे देहाध्यास तो, नहि कर्ता तुं कर्म; नहि भोक्ता तुं तेहनो, ए ज धर्मनो मर्म "
आत्माका सुख अनंत है। 'जे पद श्री सर्वज्ञे दीठु ज्ञानमां, ' - इस सुखका स्वाद आना चाहिये । इस विषय में पहले सत्पुरुष द्वारा सुना जा सके तो भी महाभाग्य समझना चाहिये। यह बात अन्यत्र
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