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उपदेशामृत "जडभावे जड परिणमे, चेतन चेतन भाव;
कोई कोई पलटे नहीं, छोडी आप स्वभाव." अपने स्वभावको छोड़कर कोई कभी नहीं बदलता । वेदनी वेदनीके कालमें क्षय होती है। मोक्ष है। निर्जरा ही हो रही है। आत्मा शाश्वत है, त्रिकाल ही रहेगा।
'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु'
रातको साढ़े दस बजे प्रभुश्री-सुनायी दे रहा है या नहीं? मुमुक्षु-सुन सकते हैं, बहुत भान है। प्रभुश्री
'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु'
'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' उपयोग ही आत्मा है। विचार ही आत्मा है। उपयोग है, विचार है वह आत्मा है। उपयोग, विचार यदि निश्चयनयसे आत्मा पर जाय तो कोटि कर्म क्षय हो जाते हैं । अतः इस पर लक्ष्य रखें। अथवा सत्पुरुष मिले हों, बोध हुआ हो, भान हुआ हो तो उसे कुछ अड़चन नहीं है। वेदना, जन्मजरामरणका महा दुःख है। वेदनाको अधिक आनेके लिये कहें तो नहीं आयेगी और कम हो जाओ कहें तो कम नहीं होगी। अतः रागद्वेष नहीं करना चाहिये । वह तो भिन्न ही है। सत्पुरुषका बोध, उनकी आज्ञामें रहना चाहिये । पालन न हो सके तो मेरे कर्मका दोष है, पर सत्पुरुषने जाना है वैसा ही मेरा आत्मा है। यों श्रद्धा, मान्यता होगी तो भी उसका वणागनटवरके दासकी तरह काम बन जायेगा। यह स्थान ही अलग है। अनेकोंका काम बन जायेगा। बाकी संसारमें तो 'आप जाओ, हम आ रहे हैं,' 'खड़ा है वह गिरेगा' । तात्पर्य, मरण तो सबको है ही। अतः पर्यायदृष्टि नहीं रखनी चाहिये। यह सब पर्याय ही हैं। प्रकृति-स्वभाव है, उसे न देखें। उपयोगपूर्वक, विचारपूर्वक देखें। वैसे वास्तविक तो ज्ञानी ही जानते हैं और वे ही कह सकते हैं। ‘आत्मा है', ऐसा जाने बिना हमसे नहीं कहा जा सकता। पर ज्ञानीने जाना है, इस श्रद्धासे कहे तो आपत्ति नहीं है। ब्रह्माग्निमें सब जल जाता है; कर्म नष्ट होते हैं। यदि उपयोग, विचार आत्मा पर गया तो करोडों कर्म नष्ट हो जायेंगे । इन मुनिने तो सब कर लिया है। सब जीवोंसे क्षमायाचना भी कर ली है। अच्छे समयमें कर लेना चाहिये । परवशतामें कुछ नहीं हो सकेगा।
श्रावण वदी ३०,सं. १९८८ ___ तीन लोकमें सार वस्तु आत्मा है। आत्मा किसके द्वारा ग्रहण होता है? उपयोगके द्वारा ग्रहण होता है। ज्ञानीने आत्माको जाना वह मुझे मान्य है। इस श्रवण, बोधके प्रति जिसकी अविचल
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