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________________ ४४६ उपदेशामृत मनुष्यभव दुर्लभ है, इसमें कुछ कर लेना चाहिये। जो समकिती है वह विश्राम लेता है, पर उसे मार्गका पता है, जिससे वह घरके समक्ष पहुँच ही जायेगा। क्षायिक समकित करना है। ता.४-४-३५ रंकके हाथमें रत्न आया है। उसका मूल्य नहीं है। अन्यथा 'आत्मसिद्धि के वचन लब्धिरूप हैं! कैसा धन! कितनी कमाई! कुछ चिंता नहीं । आत्मा आत्मामें है, कर्म कर्ममें है। पानी मैला हुआ किन्तु पानी और मैल एक नहीं है। सोनेको चाहे जितना तपाया जाय वह सोना ही रहेगा। चाहे जितने कर्मके उपसर्ग आयें पर आत्मा तो आत्मा ही है। संबंधके कारण वेदना लगती है, पर संबंध तो संबंध ही है। जो कहा वह ध्यानमें है? उसीका विचार रखें। आत्मा ही देखें । अन्य देखेंगे तो आस्रव होगा, आत्मा देखेंगे तो संवर होगा। यही आस्रवमें संवर होना कहा जाता है। आप यहाँ बैठे हैं तो यहाँ का दृश्य दिखायी देता है। मुंबई जायेंगे तब मुंबई दिखायी देगी, इसी प्रकार ये संबंध मिल गये हैं, जिससे यह दिखायी देता है, पर वह भिन्न है। ता. १२-४-३५ मुमुक्षु-मोक्ष कैसे प्राप्त हो? प्रभुश्री-आत्मा अरूपी है। उसे पहचानना चाहिये, उसकी जानकारी होनी चाहिये । अभ्यास करने पर पढ़ना आता है, ऐसे ही भेदी मिलने पर समझमें आता है। ता. १४-४-३५ जहाँ भाव है वहाँ भगवान है। आप भक्ति करेंगे वहाँ भगवान हाजिर हैं। भाव रखनेका है, अन्य सब बादमें। _ 'मूळ मारग सांभळो जिननो रे' मूल मार्ग क्या? आत्मा। जन अर्थात् लोग और जिन अर्थात् आत्मा। वृत्ति चारों ओर भटक रही है, उसे रोककर अब सुनें । ज्ञानी कहते हैं कि हमें कुछ पूजाकी इच्छा नहीं है, हमें भवका दुःख अच्छा नहीं लगता, हमें प्रतिबंधमें नहीं पड़ना है। आप जानते हों तो सिद्धांतसे इस वचनकी तुलना कर देखें । अब सब भेद खोलकर बात की है। __ 'ज्ञान', 'दर्शन', 'चारित्र' नाम रखे हैं, पर वास्तवमें वस्तु एक ही है। आत्माके सिवाय देखने-जाननेवाला कौन है? संसारमें स्थिर रहनेवाला कौन है? आत्मा ऐसा है कि न मरता है न वृद्ध होता है। लोग कहते हैं, 'यह मर गया' पर आत्मा नहीं मरता, शरीर गिर जाता है। ता. १६-८-३५ एक ही काम करना है-समकित । सब छोड़ना पड़ेगा। सबको पकड़ रखा है उसे छोड़े बिना छुटकारा नहीं है। जड़ कभी चेतन नहीं होता, मात्र मान्यता हो गयी है। अहंभाव, ममत्वभाव छोड़ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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