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________________ उपदेशसंग्रह-५ ४४५ आधार है ऐसा दृढ़ होना चाहिये। ज्ञानीपुरुषके वचनामृत किस आशयसे लिखे गये हैं उसका तो दशा आने पर पता लगता है। उसकी तुलना करनेका हमारा सामर्थ्य नहीं है। आत्माके अतिरिक्त उसमें अन्य कुछ नहीं है, यह लक्ष्यमें रखने योग्य है। परमार्थ समझमें न आये और मतिकल्पनासे अर्थ करे तो वह महा भयंकर है। समझनेकी भावना रखनी चाहिये, पर मतिकल्पनाके काँटेसे ज्ञानीपुरुषके वचनकी तुलना नहीं करनी चाहिये । परमकृपालुदेवने ईडरमें कहा था कि हम पहाड़ पर बैठे हैं वहाँ क्या है यह नीचेवाला मनुष्य नहीं जान सकता। ऊपर चढ़कर देखे तो पता लगता है। परंतु ऊपरवाला मनुष्य नीचे क्या हो रहा है उसे देख सकता है। इसी प्रकार ऊँची दशावाले ज्ञानी सब जान सकते हैं, पर नीची दशावालेको ज्ञानीका आशय समझमें नहीं आता। अतः समझनेकी भावना रखनी चाहिये। ता. २७३-३५ मनुष्यभव चिंतामणि है। जैसा चिंतन करे वैसा मिलता है। मनसे जैसा भाव किया हो वैसा फल मिलता है। तब चिंतामणि कहना चाहिये या नहीं? जीवके पास मन, वचन, काया है जो रूपी है, पर आत्मा न हो तो मुर्दा है। देखो, आत्मा अरूपी है। कैसा गुप्त रहा हुआ है! जीवके साथ क्या आता है? धर्म । धर्म कहाँ रहता है? सबके पास क्या है? भाव। भावसे परिणमन होता है। कानमें जो शब्द पड़ता है वह परिणमित होता है। उसका फल प्राप्त होता है। ता. २९-३-३५ आत्मा अरूपी है। दीखता है या नहीं? आत्मासे आत्मा दिखायी देता है। पहले अभ्यास करें तब पढ़ना आता है। पहले परोक्ष होना चाहिये। फिर प्रत्यक्ष होता है।। जीव सो रहा है। परमें ममत्व है। जाग्रत नहीं है। घरमें जाये तो बैठनेको मिलता है, तब तक भटकना ही है। यह जीव संकल्प-विकल्प, वासनासे भटकता है। इसका उपाय क्या है? समकित । जैसा धंधा हो वैसा कहा जाता है। दरजीका हो तो दरजी कहलता है। एक आँख फूटी हो तो काना कहलाता है। पर आत्मा वैसा है क्या? संयोग है। ता. ३०-३-३५ शांति, समता, क्षमा कहाँ होती है? जहाँ धर्म होता है वहाँ । धर्म कहाँ होता है? अभी कहेंगे, आपको पता है, सामान्य कर दिया है। "उपयोग ही धर्म है।" विचार किसको आता है? जड़को नहीं आता। उपयोग रखनेमें परिश्रम करना पड़ता है, क्योंकि कर्म है, आवरण है, विघ्न है। समयमात्रका प्रमाद न कर। समय ही आत्मा है। प्रमादमें विषयकषाय हैं, ममत्वभाव है। भाव बदल जाते हैं, उन्हें बदलने नहीं देना चाहिये। सभी कठिनाइयोंका सीधासे सीधा, सरलसे सरल उपाय भक्ति है। पुण्य सूर्यके समान है, वह अस्त हुआ कि अंधकार । जब तक पुण्य है तब तक कर लेना चाहिये। आत्मा सबमें है। कौवे, कुत्तेमें भी आत्मा है, पर उन्हें समझा नहीं सकते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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