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________________ ३९६ उपदेशामृत ज्ञान चक्षु है। उपयोग दर्शन है। दर्शन ही समकित है। उपयोग ही आत्मा है। निजरूप अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र । 'भान नहीं निज रूपर्नु, ते निश्चय नहि सार।' तृष्णा, वासना, इच्छा, वांछा ये अज्ञान हैं। परभावके परिणमनसे अज्ञान होता है। मोहनीयकर्मसे विकार होता है, संकल्प-विकल्प होते हैं। परभावमें प्रीति करता है वह मोहसे-अज्ञान-आत्मासे ऐसा होता है। निजभावमें जाना वह ज्ञान और परभावमें जाना वह अज्ञान । शुद्धभावमें परिणमन वह ज्ञान है। अशुद्धभावमें परिणमन वह अज्ञान है। बाह्यात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा। परभावमें परिणमन होनेसे बंधन होता है। स्वभावमें परिणमन हो तो मोक्ष अर्थात् छूटना होता है। परमें प्रीति नहीं करूँगा। परभावमें प्रीति नहीं करूंगा। स्वभावमें प्रीति करूँगा। ता. २३-१०-३० ब्रह्मचर्यका स्वरूप : आत्मस्वरूपमें रहना, ब्रह्ममें स्थिर रहना वह ब्रह्मचर्य । परभावमें जाये उतना ही व्रतभंग। संकल्प-विकल्प, विषय-कषाय, रागद्वेषमें वृत्ति नहीं जानी चाहिये । इच्छा, आकांक्षा, तृष्णा, किसी भी प्रकारकी हो तो वृत्तिमें अब्रह्मचर्य कहलाता है। वचन शांत, मधुर, प्रिय और हितकारी बोलें । इसके विपरीत हो तो ब्रह्मचर्यमें दोष लगता है। पाँच इन्द्रियोंके विषयोंको रोकें । आलस्यका त्याग करें। शरीर आत्मासे भिन्न है । उस पर पूर्ण अधिकार और संयम रखें। वेदनामें उदासीनता, निर्मोहीपन रखें। यह जीव अनादिकालसे भटका है और अब भी नहीं चेतेगा, मायामें लिपटायेगा तो पता लगेगा क्या? ऐसे अनेक वेष किये । भाई, बहन, मित्र, सगे, स्नेही-इनमेंसे कौन सगा होगा? . बहनापा, भाइपा कुछ करनेका प्रयोजन नहीं है। इससे सावधान रहें। यह जीव अनंतकालसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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