________________
३९५
उपदेशसंग्रह-४
ता. २४-५-२८ (मनको) भटकता नहीं रहने दें। रातदिन मंत्रका स्मरण करें और समय मिलने पर वाचन, पठन करें। अमूल्य समयको आलस्यमें या परपरिणतिमें न गुमावें । नित्य छह पदके पत्रका स्मरण करें और मनन करें। बड़ी पुस्तक (श्रीमद् राजचंद्र) मेंसे जो जो पत्र समझमें आयें उनका मनन करें।
अठारह पापस्थानकमें रति-अरति न हो इस पर विशेष ध्यान रखें। अभी तो सब सुख है, पर जब रोग आयेगा तब व्याकुलता होगी, कुछ अच्छा नहीं लगेगा। कहाँ जाऊँ ? क्या करूँ? प्राण निकल जायेंगे? ऐसा सोचेंगे। उस समय श्रद्धा होगी, ज्ञान होगा तो समभावसे रह सकेंगे।
ता. ३०-१०-२८ अत्यंत दुर्लभ प्रसंग प्राप्त हुआ है। करोडों रुपये देने पर भी ऐसा सत्य नहीं मिल सकेगा। देह, वैभव, मान, बड़ाई सब विनाशी है, क्षणिक है। बुढ़ापा आयेगा, रोग आयेगा और मृत्यु तो आयेगी ही। ऐसे अनेक भव किये। अब चेते। वाचन, मनन, चिंतन खूब रखें। धर्मकी श्रद्धा दिन प्रतिदिन दृढ़ करें, बढ़ायें। यही साथ चलेगी।
ऐसा योग फिर नहीं मिलेगा, संसारमें पड़नेसे तो अनेक प्रकारकी झंझाल लगेगी।
ता.३-११-२९
सावधान हो जाना है। जगत पर्यायरूप और धोखेसे भरा हुआ है।
ता. १०-१०-३०
यथायोग्य उपयोग ही आत्मा है। विचार ही जीव है। ‘कर विचार तो पाम ।' आत्मा अरूपी है, ज्ञान चक्षुसे ज्ञात होता है। ज्ञान यथायोग्य आत्मा है। यथायोग्य देखना दर्शन है। यथायोग्य स्वरूपमें स्थिर होना चारित्र है। उपयोग धर्म है। वह आत्मा है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org