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उपदेशामृत
ता. १०-४-३६ जागृति है। एक, बोला जाय या न बोला जाय तो भी क्या? पुद्गल कर्म है। संयोगके कारण वेदनाकी तीव्रता है। उसका कुछ नहीं। शेष सब जागृति है। कुछ चिंता नहीं है।
चैत्र वदी ५, रवि, सं.१९९२, ता.१२-४-३६ मुख्यमार्ग भक्ति है। जो करेंगे उन्हें फलीभूत होगी। यह कर्तव्य है। भक्तिका फल मिलेगा। अपना कर्तव्य है, अन्यका कार्य नहीं है। ज्ञानीपुरुषकी पहचान यथातथ्य है, वह मान्य है। मेरी कल्पना झूठी है। मुझे तो, श्री सद्गुरु कृपालुदेवने आत्माको यथातथ्य जाना है वह मान्य है। उन्होंने आत्माको जाना है वह किसीकी कृपादृष्टिसे बताया, उसे जाना तो यथातथ्य है। इसके सिवाय अन्य कुछ नहीं । मूल बात-वस्तु आत्मा, भावना । जैसे भी हो रागद्वेष न करें। जीव सभी अच्छे हैं। पुद्गल आत्मा नहीं हो सकता। आत्मा ही आत्मा है। ज्ञानीने ही आत्माको जाना है। ज्ञानीके सिवाय कोई कहे कि मैंने जाना है तो वह मिथ्या है। याद रखने योग्य है। एक भक्ति मात्र कर्तव्य है। मनुष्यभव दुर्लभ है।
जो आत्मज्ञानी होता है वही आत्मा बताता है। पकड़ने योग्य है। एक विश्वास, प्रतीति हो जाय तो अवश्य कल्याण! सयाने न बनें। भक्तिके बीस दोहे महामंत्र हैं, यमनियम संयम, क्षमापनाका पाठ-तीनोंका स्मरण करें, पाठ करें, ध्यान करें, लक्ष्यमें-ध्यानमें रखने योग्य हैं। आत्मा देखें। आत्मा है। जैसा है वैसा ज्ञानीने जाना है। ज्ञानीने देखा वह आत्मा । प्रत्यक्ष ज्ञानी कृपालुदेवने जिन्हें पदक लगाया है, उनका आत्महित होना ही है। स्मरण करें। आत्मा है। आत्मा है, आत्मा नित्य है, कर्ता है, भोक्ता है, मोक्ष है, मोक्षका उपाय है-ये सर्व भाव ज्ञानीने जाने वे यथातथ्य सत्य हैं। यह मंत्र बहुत प्रभावशाली है। आत्माका लक्ष्य रखने योग्य है।
डॉक्टर तो निमित्त है। कर्म भड़के हैं, इन्हें कर्म समझें। व्यवहारसे करना है, निश्चयसे नहीं। प्रकृति है। सब साधन बंधन हुए हैं। मनुष्यभव और सत्पुरुषकी श्रद्धा दुर्लभ है। पागल जैसोकी बात है, कहेंगे हाँ हाँ गठीले ! पर सत् जो आत्मा है उसे माननेवालेका कल्याण है। मुख्य बात श्रद्धा है। ‘सद्धा परम दुल्लहा।
चैत्र वदी ६, सोम, सं. १९९२, ता. १३-४-३६ आत्माको मृत्यु महोत्सव है, एक मृत्यु महोत्सव है।
“विश्वभावव्यापी तदपि एक विमल चिगुप;
ज्ञानानंद महेश्वरा, जयवंता जिनभूप." एक आत्मा, अन्य कुछ नहीं। उसका महोत्सव, मृत्यु महोत्सव! आत्मा, धर्म; आज्ञामें धर्म-कृपालुदेवकी आज्ञा । परमकृपालुकी शरण हैं। वह मान्य है। सब एकतासे मिल-जुलकर रहें।
___ मतमतांतर, भेदाभेद, पक्षपात नहीं है। बात मान्यताकी है। कृपालुदेवने मुझसे कहा है, इसके बिना बात नहीं है। गुरुदेव सहजात्मस्वरूप राजचंद्रजी कृपालुदेव हैं। आत्मा है। जैसे है वैसे है।
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