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________________ ३७८ उपदेशामृत सब शास्त्रोंका सार, तत्त्वोंका सार ढूँढकर बता दिया है। इस कालमें कृपालुदेवने बहुत दुर्लभ, काम निकल जाय ऐसा प्रदान किया है। विश्वास हो तो कहूँ। . भक्तिके 'बीस दोहे' मंत्रके समान हैं। सौ बार, हजार बार पाठ करें तो भी कम है। लाभके ढेर हैं। 'क्षमापनाका पाठ', 'छह पद'का पत्र, 'यमनियम', 'आत्मसिद्धि' ये अपूर्व साधन हैं! चमत्कारी है! नित्य पाठ करना आवश्यक है। जीवनपर्यंत इतनी भक्ति नित्य करनी ही चाहिये। 'दर्जीका लड़का जीये तब तक सीये।' यह बात तो झूठी है, पर आप जीवनपर्यंत इतना तो करेंगे ही। इससे समाधिमरण होगा, समकितका तिलक होगा। अधिक क्या कहूँ ? दूसरा एक देववंदन है वह भी अपूर्व है! प्रत्यक्ष देवको बुलाया है, अतः वह भी प्रतिदिन करने योग्य है। ज्ञानीके सर्व व्यवहार परमार्थमूलक हैं, कैसे? ज्ञानीके पास ऐसा क्या है कि वे जो भी करते हैं, सुल्टा ही होता है? खाते हैं फिर भी नहीं खाते । संसारमें हैं तो भी संसारी नहीं हैं। आस्रवके काममें संवर होता है, ऐसा उन्हें क्या मिला है? उन्हें 'गुरुगम' मिला है, जिससे वे आत्मामें परिणमित हुए हैं। एक आत्माको पहचाननेकी सबको आवश्यकता है, तब तक संसारमें कहीं भी सुख नहीं है। गुरुगम कैसे मिले? आत्माको कैसे पहचाने? आपकी देरीसे देर है, उसे प्राप्त करनेके भाव रखें । भाव और परिणाम बहुत बड़ी बात है। उस वस्तुको प्राप्त करनेके भावके बिना, उसकी आकांक्षाके बिना किसीने उसको प्राप्त नहीं किया है। यह वस्तु स्वतः आकर मिलनेवाली नहीं है। उसकी प्राप्तिके लिये भाव बढ़ायें । मृत्यु तो सबको एक समय अवश्य आयेगी, किसीको छोड़ेगी नहीं। संयोग जितने भी हैं वे सब छूटेंगे। ऐसी देह, ऐसे संयोग अनंतबार छोड़े हैं, पर एक आत्माको नहीं छोड़ा है। वह मरेगा नहीं। मात्र उसे पहचान लेनेका अवसर आया है। अतः चेत जायें, तैयार हो जायें। एक इसीके लिये जीना है। खाते-पीते, बोलते-चालते, उठते-बैठते प्रत्येक प्रसंगमें एक 'आत्मभावना'। उसके सिवाय अन्य सब विष है, कालकूट विष है। ये बाह्य नेत्र तो फोड़ डालने चाहिये, अंतरकी आँखें खोलनी चाहिये । जहाँ तहाँ एक 'तू ही तू ही'-आत्मा ही देखें। इस अवसरको ऐसा वैसा नहीं जानें। बात सुनते ही परिणत हो जायें तो कोटि कल्याण है। आत्मा कैसी अपूर्व वस्तु है! उसका माहात्म्य कहा नहीं जा सकता। "जे पद श्री सर्वज्ञे दीर्छ ज्ञानमां, कही शक्या नहि पण ते श्री भगवान जो." इसीकी बात, इसीका विचार, इसी पर प्रेम, प्रीति, भाव होते हैं वहाँ कोटि कर्म क्षय होते हैं। "पर्याय दृष्टि न दीजीओ, एक ज कनक अभंग रे; निर्विकल्प रस पीजीओ, शुद्ध निरंजन एक रे." आत्मा, चैतन्य, यह कोई ऐसी वैसी बात है! इसका माहात्म्य तो कुछ अलौकिक है! कहा नहीं जा सकता। इसीकी पूजा करनी है, इसीको नमस्कार करना है, यही पूज्य है, इसे सँभालें। इसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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