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उपदेशसंग्रह-३ रहें कि दुःखमात्र चला जाय? बड़े लोग अच्छे उत्तम स्थानमें रहते हैं, शौचालयमें नहीं रहते । सारा संसार शौचालयमें रहता है, पर ज्ञानी कहाँ रहते हैं ? 'समभाव'में। यह उनका स्थान है। इस स्थानका कितना सुख, कितने ठाठ हैं वह कहा नहीं जा सकता। इस स्थान पर जानेसे दुःख मात्र नष्ट हो जाते हैं। चंडाल जैसे नीचके घर, तुच्छ भावमें ज्ञानी नहीं रहते। इसलिये उनके भयमात्र नष्ट हो गये हैं।
"जिसने एक आत्माको जाना, उसने सब जान लिया।" उसकी श्रद्धा, विश्वास, प्रतीति होने पर भी काम बन जायेगा। _ 'छह पद' का पत्र अमूल्य है। गहरे उतरना चाहिये। पकड़ होनी चाहिये। सबके बीच कहा है, पर 'समभाव'की पकड़ कर लेगा, उसका काम हो जायेगा।
ता. २७-९-३५ बहुत बात कहनी है, पर कही नहीं जाती। 'सुन सुन फूटे कान, सुना पर न सुननेके समान कर दिया, क्योंकि उपयोग, परिणमन उसमें नहीं हुआ, बाहर ही रहा। परिणमन होना चाहिये।
क्षयोपशम चाहिये। विचारकी कमी है। विचार ध्यान है। अंतर परिणमन विचारसे करना चाहिये । बदल डालना चाहिये।
अब तो आत्माको देखनेका अभ्यास करो । अन्य देखनेका अभ्यास किया उससे लौटकर एक आत्मा देखनेका अभ्यास करो। दृष्टिमें विष है, वह अमृत बन जायें वैसा करो। 'मात्र दृष्टिकी भूल है' ज्ञानियोंने यही किया है, यही देखा है। ‘कर विचार तो पाम' | विचार द्वारा दृष्टि बदलकर अंतरदृष्टि करनेकी आवश्यकता है।
ता. २८-९-३५ __ “पर्यायदृष्टि न दीजिये, एक ज कनक अभंग रे।" जो महापुरुष मोक्षके लिये उद्यम कर रहे हैं, वे तो सब उलटेको सुलटा ही कर रहे हैं।
आत्मा पर भाव, प्रेम, प्रीति अत्यंत करनी चाहिये । खाते-पीते, बोलते-चालते, बैठते-उठते हर समय उसे याद करना चाहिये । इसका स्वरूप कैसा अद्भुत है? इसका सुख अनंत है। इसकी ऋद्धि अनंत है। इसके लिये पागल बन जायें। भले ही संसार पागल कहे, पर एक यही! इसके लिये पागल हो जायें।
सभी ज्ञानीपुरुष एक ही मार्गसे मोक्ष गये हैं। वह मार्ग 'समता' है। बहुत अद्भुत है! जहाँ विषमभाव है वहाँ बंधन है। समभाव है वहाँ अबंधता है।
ता. २९-९-३५ पत्रांक ६७० का वाचन
ॐ सद्गुरुप्रसाद "ज्ञानीका सर्व व्यवहार परमार्थमूल होता है, तो भी जिस दिन उदय भी आत्माकार रहेगा वह दिन धन्य होगा।"
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