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उपदेशसंग्रह-३
३७५ खूटेके साथ बाँधा नहीं है, मनको ढूँटके साथ बाँधना चाहिये। ऐसा योग मिला है तब जीव खूटेके पास आया है, पर अभी बँधा नहीं है। बँध जाय तो हानि करता रुके और मार खानेसे बच जाय।
आत्मभावका पुरुषार्थ करो। सत् और शीलके भाव रखे।। जो बीचमें आता है उसे दूर करो। कुत्ते घुस जाते हैं, उन्हें मारकर बाहर निकाल दो-परभावरूपी कुत्तोंको बोधरूपी लकड़ीसे मार भगाओ।
ता. २७-८-३५ ज्ञानियोंने बहुत कहा है, पर जीवको उत्सुकता नहीं है। कही गयी बात व्यर्थ ही जाती है। लक्ष्यमें ले लें तो काम बन जाय । अति संक्षेपमें कह दूँ ?
आस्रवमें संवर हो, विकारके स्थानोंमें वैराग्य हो, 'सर्वात्ममां समदृष्टि द्यो' यों सबमें आत्मा देखा जाय; यह तुंबी (देह) है, कर्म है, कलंक है इसे न देखा जाय; स्त्री है वह आत्मा है यों पहले आत्मा देखनेकी मनमें रुचि हो तो काम बन जाय । ऐसा अभ्यास करना चाहिये। एक यही भावना करनी चाहिये।
ता.७-९-३५ अपने प्रियसे प्रिय बालकको कोई मार दे तो उस पर अंतरसे कितना रोष आता है? 'इसका कब बुरा करूँ' यों अंतरमें विष ही विष हो जाता है। इसी प्रकार हमें अनंतकालसे दुःख देनेवाले शत्रु कौन हैं ? पाँच इन्द्रियाँ, चार कषाय तथा मन ये दस-इन पर अंतरसे शत्रुता होनी चाहिये। दुश्मनको कोई ऐसा कहेगा कि आइये, पधारिये? वीर क्षत्रियके स्वभावसे शत्रुको मार भगानेके लिये तैयार रहना चाहिये और अवसर आने पर मार मारते रहना चाहिये। तभी विजय हो सकती है। एक मनको जीत लेने पर दसों ही शत्रु जीत लिये जाते हैं और आत्मसुख प्राप्त होता है।
विभाव ही शत्रु है। स्वभाव मित्र है। विभावके प्रति रोष होना चाहिये। अनादिसे अहित करनेवालोंको मित्र मान रखा है, यही भूल है। अब यह जानकर कि वे शत्रु हैं, उनके प्रति अंतरसे रोष होना चाहिये।
दृष्टि बदलने योग्य है। कालकूट विषको अनादिसे अमृत माना है। अब अमृतको अमृत माने और विषको विष मानें तभी कल्याण होगा। दृष्टि बदलेगी तभी विषको छोड़कर अमृत देखेगा। आस्रवमें संवर होगा, शत्रु भाग जायेंगे, बंधन नहीं होगा, दोष मात्र नष्ट होंगे। ____ आत्मा पर प्रेमभाव बढ़ा देना चाहिये। उसका माहात्म्य नहीं लगा है। समझ बड़ी बात है। समझनेसे ही छुटकारा है। समझ आने पर ज्ञात होता है कि यह विष और यह अमृत है। फिर अमृतको छोड़कर विष कौन ग्रहण करेगा? ___ यह चेतन और यह जड़ यों ज्ञानीको भेद हो गया है। आत्माकी ऋद्धि, आत्माका सुख कहा नहीं जा सकता।
“समकित साथे सगाई कीधी, सपरिवारशुं गाढी; मिथ्यामति अपराधण जाणी, घरथी बाहिर काढी."
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