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________________ ३७४ उपदेशामृत तुलसीदासजी चंदन घिस रहे हैं। संतोंकी भीड़ लगी हुई है। वहाँ रामको पहचाननेका संकेत किया है कि उन सब भक्तोंको तुलसीदासजी चंदन घिसकर तिलक कर रहे हैं-सबमें आत्मा देखते हैं। अतः जिसे तिलक करते हैं उसे राम समझते हैं। यों आत्माको देखनेकी दृष्टि करें। भैंसको दानेकी टोकरी रखने कोई स्त्री आती है, तब भैंसकी दृष्टि स्त्री पर नहीं होती। उसने कैसे कपड़े पहने हैं, कैसे गहने पहने हैं, वह युवती है या वृद्धा-भैंस यह सब कुछ नहीं देखती। उसकी दृष्टि तो एक मात्र दानेकी टोकरी पर रहती है। इसी प्रकार दृष्टिको अन्य पदार्थोंसे हटाकर आत्मा पर करनी चाहिये। १"जेवा भाव तेवा प्रभु फळे, भभ्भा भजन थकी भय टळे; भेख धर्ये जो सिद्धि थाय, भांड भवैया वैकुंठ जाय." आपके भाव आपके पास है। भाव आत्मा पर हो तो काम बन जाय । ता. १५-८-३५ उलटा किया तब जगत दिखायी दिया, सुलटा किया तो आत्मा दिखायी दिया। जो दिखायी देता है वह सब पर है। जो दीखता है उसे माना है यही उलटी दृष्टि है। दृष्टि बदले तो सबका ज्ञाता-द्रष्टा ऐसा जो आत्मा उस पर लक्ष्य जाता है, परपदार्थों में मेरापन हो गया है वह दूर होता ___ सब छोड़ना पड़ेगा। जहाँ जहाँ 'मेरा मेरा' किया है, वहाँसे उठ जाना पड़ेगा। मेरा तो एक आत्मा है। इसके सिवाय जगतकी वस्तुओंमेंसे एक परमाणु भी मेरा नहीं। आत्माका बाल भी बाँका नहीं होगा। मात्र उसका निश्चय नहीं किया, पकड़ नहीं हुई। वह कर लो। यह अन्य सब तो कलंक है। उसे माना है। पुरुषार्थ करो। परदा नहीं पड़ा है। परदा पड़े तो अन्य दिखायी देता है। "जे जाण्युं ते नवि जाणुं अने नवि जाण्युं ते जाणुं।" ऐसा तुम्हारा स्वरूप है? कैसा अपूर्व तुम्हारा स्वरूप है! उसे कभी याद नहीं किया। आत्माको सुला दिया है, उसे जगाया नहीं। उस पर भाव, प्रेम, प्रीति करनी है। यह सब पड़ा रहने दो। जब देखो तब इस कलंकको आगे करते हो। छोड़ो इसे और अब आत्माको आगे करके सब करो। पहले यह न हो तो अन्य कुछ नहीं होता। ऐसा आत्मा! इस पर भाव करो, इसे आगे करो। भाव बदलनेका पुरुषार्थ करना चाहिये। अपने देश गये बिना छुटकारा नहीं है। यह तुम्हारा देश नहीं है। इस जीवमें बहुत दोष हैं। यह गोरा, यह काला, यह शिक्षित, यह समझदार, यह स्त्री, यह पुरुष-यह देखना छोड़ दो। एक अपने ऊपर आ जाओ। अपनेमें अनंत दोष हैं, इन्हें अब निकालना है। अतः अपने दोष ही ढूँढकर निकालो। पराये दोष देखना छोड़ दो। 'तेरे दोषसे तुझे बंधन है, यह संतकी प्रथम शिक्षा है।' । १. अर्थ-जैसे भाव वैसे प्रभु फल देते हैं। प्रीतमदास कहते है कि भजन करनेसे भय दूर होता है। भेख धरने मात्र से अगर सिद्धि होती हो तो भांड वगेरे वेशधारी भी वैकुंठ जाने चाहिये, मगर ऐसा नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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