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उपदेशामृत आती है। 'सवणे नाणे विन्नाणे' श्रवण करनेसे विज्ञान प्राप्त होता है।
मुमुक्षु-श्रवण कराइए।
प्रभुश्री-ज्ञानी द्वारा कहा हुआ कहता हूँ। हम तो ज्ञानीके दास हैं। 'आत्मसिद्धिशास्त्र' सुननेका अवकाश निकालना चाहिये । अलौकिक दृष्टिसे सुना जाय, सामान्य न हो जाय इसका ध्यान रखना योग्य है।
"जे स्वरूप समज्या विना, पाम्यो दुःख अनंत;
समजाव्युं ते पद नमुं, श्री सद्गुरु भगवंत." समझकर नमस्कार किया जाय वह अलग ही होता है। 'जे स्वरूप' वह आत्मा है । उसे समझे बिना सब 'आत्मा' कहते हैं वह ओघसंज्ञासे । जो स्वरूपको समझे बिना 'आत्मा आत्मा' कहते हैं उनके भव खड़े होते हैं। ये तो समझकर कहते हैं तो जन्म मरणसे छूटनेका मार्ग है। बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा। ये वचन अंतरात्मासे लिखे गये हैं, ये अपूर्व हैं। उन्हें नमस्कार करना चाहिये।
तुम आत्मा पर दृष्टि करना। तुम बुढा, जवान, छोटा, बड़ा, स्त्री, पुरुष मत देखना, पर आत्माको देखना । ऐसा करोगे तो भाव बदल जायेंगे। भाव बदले कि काम बना।
ध्यान रखें। इस बातको सामान्य न बना दें। जिस स्वरूपको समझे बिना अनंत दुःख पाये हैं, उस स्वरूपको समझानेवालेको नमस्कार हो! जहाँ आत्मा देखा, वहाँ समदृष्टि करनी पड़ी। समझमें कुछ और ही कर लिया । दृष्टि अन्य कर ली । जैसे जैसे आत्माको देखते जायेंगे, वैसे वैसे कर्म नहीं बँधेगे। अन्यथा रागद्वेष, इष्ट-अनिष्ट होगा, जिससे कर्म बँधेगे।
बात समझनेकी है। समझमें आये और ध्यानमें रखा जाय तब आत्माकी बात पल्ले पड़ेगी। आत्माको प्रत्यक्ष करना है। ज्ञानीने प्रत्यक्ष किया है। भावसे ही कल्याण होगा।
"भावे जिनवर पूजिये, भावे दीजे दान;
भावे भावना भाविये, भावे केवळज्ञान." भाव बड़ी बात है, 'आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे।'
आत्मा ही गुरु है। निश्चय गुरु अपना आत्मा है। उसकी ओर दृष्टि नहीं गयी है, भाव नहीं आया है; आये तो काम बन जाय ।
"ज्यां लगी आतमा तत्त्व चीन्यो नहीं;
त्यां लगी साधना सर्व जूठी." एक भेदी मिलना चाहिये। वही सद्गुरु भगवान है। शास्त्रमें जो गुरुगम रह गया है, वह गुरुगम यहाँ कहते हैं।
असंग अप्रतिबद्ध एक आत्मा ही बताना है। इस पर भाव जाये इस हेतु इसपर दृष्टि करानी है। अनादिकालसे इसमें फँसा हुआ है। इस गुत्थीमेंसे आत्मा पर दृष्टि करवानी है । दृष्टि बदलनेकी जरूरत है। कभी भी छोड़नी पड़ेगी।
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