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________________ उपदेशसंग्रह-३ ३६७ यह शुद्ध आत्माका कथन है । अन्य सब माया है । मायाको छोड़ना पड़ेगा । मायाको अपना माना है उसे छोड़ना पड़ेगा। संयोग, संबंधको अपना माना है उन्हें छोड़ना पड़ेगा । केवल एक आत्मा है। उसकी सामग्रीको जानना चाहिये। सबको जानता है वह एक आत्मा है । अपना स्वभाव क्या है ? जानना । जैसा है वैसा नहीं जाना अर्थात् स्वभावको छोड़कर विभाववाला बना। निर्मल पानी न रहा, मैला हो गया । यहाँ संबंध है सो अनादिकालका मैल है। उससे छूटना है । स्वभावमें आना है । उसके लिये बोध चाहिये, उत्कंठा चाहिये । जीवको ज्ञान कैसे होता है ? जप तप किये, साधन अनंत किये - “यम नियम संजम आप कियो, पुनि त्याग बिराग अथाग लह्यो; वनवास लियो, मुख मौन रह्यो, दृढ आसन पद्म लगाय दियो. मनपौन निरोध, स्वबोध कियो, हठ जोग प्रयोग सुतार भयो; जप भेद जपे, तप त्यौंहि तपे, उरसेहि उदासी लही सबपें. सब शास्त्रनके नय धारी हिये, मत मंडन खंडन भेद लिये; वह साधन बार अनंत कियो, तदपि कछु हाथ हजु न पर्यो. ' इतना अधिक किया ! यह मनुष्यभव दुर्लभ है। ऐसे मनुष्यभव भी मिले। तब कमी क्या रह गयी ? " नहि ग्रंथमांही ज्ञान भाख्युं, ज्ञान नहि कविचातुरी, नहि मंत्रतंत्रो ज्ञान दाख्यां, ज्ञान नहि भाषा ठरी; नहि अन्य स्थाने ज्ञान भाख्युं, ज्ञान ज्ञानीमां कळो, जिनवर कहे छे ज्ञान तेने, सर्व भव्यो सांभळो. " ज्ञान तो ज्ञानीमें ही कहा गया है। आत्मा आत्मामें ही है। इस समय तो कर्म, प्रकृति, संबंध, वेद कहलाते हैं। शुद्ध आत्मामें ज्ञान कहा जाता है । वह स्वरूप कैसे ज्ञात हो ? आंखें हों तो दिखायी देता है । अँधेरेमें दीपक हो तो दिखायी देता है । ' पात्र विना वस्तु न रहे।' जैसे सिंहनीका दूध सोनेके पात्रमें रहता है, वैसी ही दृढ़ दशा होनी चाहिये । I आत्मा ज्ञानचक्षुसे देखा जाता है । वे ज्ञानचक्षु कहाँ है ? ज्ञानचक्षु आये कैसे ? अज्ञानी थे वे ज्ञानी कैसे बन गये ? अज्ञान मिटकर ज्ञान होता है, वह कैसे होता है ? "चंद्र भूमिको प्रकाशित करता है । उसकी किरणोंकी कांतिके प्रभावसे समस्त भूमि श्वेत हो जाती है, पर चंद्र कभी भी भूमिरूप नहीं होता। ऐसे ही समस्त विश्वका प्रकाशक यह आत्मा कभी भी विश्वरूप नहीं होता, सदा सर्वदा चैतन्यस्वरूप ही रहता है ।" चेतना आत्मामें है । ये जो संयोग मिले हैं, ये सब किससे देखे जाते हैं ? ज्ञानविचारसे । पहले क्या चाहिये ? सत्संग और बोध । जो पढ़े हुए हैं वे पढ़ सकते हैं, वैसे ही सत्संग और बोधसे अज्ञानके बादल दूर होकर ज्ञानसूर्य प्रकाशित होता है । Jain Education International 1 1 दृष्टि तो बदलनी ही पड़ेगी । योग्यताकी कमी है । योग्यता प्राप्त करनी चाहिये । योग्यता कैसे प्राप्त हो ? योग्यता समझके बिना प्राप्त नहीं हो सकती । बोध हो तो समझ आती है, तब योग्यता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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