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________________ उपदेशसंग्रह-२ ३३३ सामान्य बना दिया है। ‘आत्मसिद्धि'में चमत्कार है। 'कर विचार तो पाम।' योग्यताकी कमी है। माघ वदी ६, सं.१९९०, ता.५-२-१९३४ प्रभुश्री-कुछ पूछना हो तो पूछिये । मुमुक्षु-मुझे क्या करना चाहिये? प्रभुश्री-तुझे क्या करना चाहिये? (थोड़ी अन्य बात होनेके बाद) सब शास्त्रोंका सार यही है कि 'ब्रह्मचर्य'का पालन करें। इससे योग्यता आदि सब मिल जायेगा। जिसकी एक यही इच्छा रही उसे वह प्राप्त हो जायेगा। आत्मामें विषय विकार आदि कुछ नहीं है। दो ही वस्तु हैं-जड़ और चेतन । परको स्वस्वरूप या अपना मानना ही व्यभिचार है। चैत्र सुदी १४, गुरु, सं.१९९० कैसे छूटा जाय? क्या साधन है? वहाँ कैसे जाया जाय? भाव तो सदा साक्षात् प्रत्यक्ष ही है। भावसे बंधन या मोक्ष होता है। उस भावको पहचान लेना जरूरी है। मुनि मोहनलालजीको अंत समयमें बहुत वेदना थी, फिर भी पहचान हुई हो तो भाव तो साथ ही था। सत्पुरुषसे सुनी हुई यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात है, किन्तु समझ चाहिये, पहचान चाहिये। ___ ज्येष्ठ वदी १४,सं.१९९०, ता.१०-७-१९३४ ___ 'सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्रके सिवाय मेरा कुछ भी नहीं है।' यह ज्ञानीका कथन मान्य करनेकी प्रतिज्ञा कर्तव्य है। यही बारंबार चिंतन करने योग्य है। माघ वदी १०,सं.१९९१, ता.२८-२-१९३५ आत्मदृष्टिके प्रति प्रेम, सावधानी रखें। सत्पुरुषके बताये बिना ऐसा नहीं हो सकता। बोधकी जरूरत है। सत्पुरुषके पास अजब चमत्कारी कला है! आत्मा किस समय नहीं है? उसे भूलना योग्य नहीं । शूरवीर होनेकी जरूरत है। 'एक मरजिया सौको भारी।' इसी प्रकार आत्माकी स्मृति अनेक कर्मोंका नाश करनेवाली है। स्मरण करते रहनेकी आदत डालें । बोध है वही गम है। + भाद्रपद सुदी ६, बुध, सं.१९९१ आत्माको देखें। श्रेणिक राजाको अनाथीमुनिसे यही दृढ़ता हुई थी। परमकृपालुदेवने हमसे यही कहा था। उसमें स्वयं भी आ गये, ऐसा कहा था। और वह दृढ़ता होनेसे परदा दूर हो गया। मीठी कूईका पानी प्यास बुझाता है। खारा समुद्र पूरा भरा हुआ हो तो भी कुछ कामका नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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