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________________ ३३२ उपदेशामृत आश्विन वदी ७, सं. १९८९ ['उत्तराध्ययन' के 'मोक्षमार्ग गति' अध्ययनमें सामायिकके स्वरूपके वाचन प्रसंग पर ] बहुत बार सुना होगा, पर सामायिकका स्वरूप क्या है ? आत्मा, समताभाव, सम - यह सामायिक है । पहले कभी नहीं कहा। यह वचन निकल गया है वह सर्व शास्त्रोंका, आत्मसिद्धि आदि सर्व साधनोंका सार है ! वही मोक्षका मार्ग है । इन दो अक्षरोंमें सब समा गया है। किसीको कहें तो 'ओहो !' में निकाल दे कि 'इसका तो हमें भी पता है ।' पर सब मतांतर, आग्रह छोड़कर यही ग्रहण करने योग्य है । [ 'उत्तराध्ययन' में केशीस्वामीने गौतमस्वामीसे प्रश्न किया है कि 'यह भयंकर अश्व तुम्हें उन्मार्ग पर क्यों नहीं ले जाता ?' उस प्रसंग पर ] . एक श्रद्धा करने योग्य है कि इस सत्पुरुषने आत्माको जाना है वह मुझे मान्य है । अन्य चाहे जैसे विकल्प आयें, उसका पता लगता है, अतः वह जाननेवाला उन सबसे अलग सिद्ध होता है । उसे जाननेवालेको मानें। सद्गुरुने कहा है वैसा उसका स्वरूप है । मुझे अभी भान नहीं है तो भी मुझे और कुछ नहीं मानना है, यह तो मेरे हाथकी बात है । ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाय तो, जो संकल्प-विकल्प, सुख-दुःख आते हैं वे जानेके लिये ही आते हैं। भले ही दुगुने आयें पर उन्हें स्वीकार नहीं करना है - इतनी श्रद्धा होनी चाहिये । दर्पणमें सामनेके पदार्थ दिखायी देते हैं, पर दर्पण दर्पणरूप ही है; वैसे ही चाहे कुछ भी मनमें आये, तो भी आत्मा आत्मारूप ही है, अन्य सब पहले के कर्मके उदयरूप भले ही आयें - वह सब तो जानेवाला ही है, पर आत्माका कभी नाश होनेवाला नहीं है-उसमें माथापच्ची करने जैसा, इष्ट-अनिष्ट मानकर हर्षशोक करने जैसा कुछ नहीं है । इतनी आयु होने तक अनेक सकंल्प-विकल्प हो गये, पर कोई रहे नहीं, सब गये । अतः नाशवान वस्तुकी क्या चिंता ? जो अपने आप ही नाश होनेवाली है, उससे घबराना क्या ? फिकरकी फाकी मार लेनी चाहिये । स्मरणका अभ्यास विशेष रखें। संकल्प - विकल्प आते ही स्मरणके शस्त्रका प्रयोग करना चाहिये और समझना चाहिये कि अच्छा हुआ जो मुझे स्मरण करनेका निमित्त प्राप्त हुआ, अन्यथा प्रमाद होता । सद्गुरुने जो मंत्र दिया है वह आत्मा ही दिया है । उसे प्रकट करनेके लिये प्रेमकी आवश्यकता है । प्रेममें सब आ गया। चलते-फिरते, उठते-बैठते एक आत्माको ही देखें । 'मूर्ख हो वह दूसरा देखेगा । ऐसा दृढ़ अभ्यास हो जाय तो फिर जो उदयमें आये वह कुछ हानि नहीं करता, मरने आता है, फिर उसको कुछ चिंता नहीं है । 1 1 Jain Education International कार्तिक वदी १, शुक्र, सं. १९९० ✰✰ पौष सुदी, १२, सं. १९९०, ता.२८-१२-३३ जीवने आज्ञाका पालन नहीं किया है। बीस दोहे, क्षमापनाका पाठ, 'हे परमकृपालुदेव ! जन्मजरा-मरणादिका नाश करनेवाला' यह पत्र, 'वीतरागका कहा हुआ परम शांतरसमय धर्म' - यह सब १. मूल गुजराती पाठ- - बेट्टो होय ते बीजुं जुए । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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