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________________ ३२६ उपदेशामृत पुण्यानुबंधी पुण्य उन्हें स्वर्गसुखोंका भोग करवाकर, मनुष्यभव प्राप्त कराकर मोक्षका हेतु बनता है। इस भेदको अवश्य ध्यानमें रखकर अलौकिक दृष्टिसे दान करना चाहिये। _अक्षयतृतीया, सं. १९८३ माधवजी सेठ सब छोड़कर चले गये। नारके हरिभाईका शरीर भी छूट गया और आप सब भी क्या यहीं बैठे रहनेवाले हैं? अतः चेत जाना चाहिये। मनुष्यदेह मिलना दुर्लभ है। क्षणमें नष्ट हो जाय ऐसी देह है। कुछ भी साथमें आनेवाला नहीं है। यह भव चिंतामणिरत्न जैसा है। इसमें यदि आप पालन करें तो आपको तो ब्रह्मचर्यव्रत प्राप्त हुआ है सो महा कल्याणका कारण है। बाह्यसे भी यदि उसका पालन हो सके तो महान फल है। 'जो त्यागे उसके आगे, और माँगे उससे भागे' ऐसी कहावत है। आ-आकर आगे पड़ेगा, पर 'हुं माझं हृदयेथी टाल' । अब कुछ भी 'मेरा' नहीं करना है। आत्मस्वरूपसे तो सब भिन्न है, अतः अब परवस्तुको अपनी न मानें । यह समझ काम बना देती है। रागद्वेषमें न पड़े। जो आ पड़े उसे समतासे देखते रहें, उसमें आसक्त न हों। गजसुकुमार आदि महापुरुषोंको यादकर क्षमापूर्वक सहन करना सीखें । क्रोध न करें-क्रोधसे तो किये हुए पुण्यका, जप तपके फलका नाश होता है। अब, मात्र पुण्यकी आशासे क्रिया करनेकी अपेक्षा, जन्ममरण कैसे छूटें इसका लक्ष्य रखें। पुण्य बाँधकर फिर उसे भोगना पड़ता है और उसे भोगते हुए तृष्णासे फिर नये कर्म बाँधकर परिभ्रमण ही परिभ्रमण करते रहना पड़ता है। अब उसकी इच्छा भी न करें। अब तो इसी लक्ष्यसे ज्ञान, ध्यान, विचार, सत्संग, सत्शास्त्रमें वृत्ति रखें। जीव बंदर जैसा है और कर्मरूपी मदारी उसे नचा रहा है, वैसे ही यह नाच रहा है। खाना, पीना, सोना, सूंघना, चलना, फिरना-सब कर्म ही कर्म है। एक घड़ी भी जीव क्रियाके बिना कब रहा है? नींदमें भी क्रिया करता ही रहता है। इस क्रियामेंसे पीछे हटकर स्मरण, पाठ आदिमें मनको जोड़ना चाहिये। यह जो वाचन हो रहा है इसमें कैसा आत्माका स्वरूप कहा है! कौन मरता है? आत्मा मरता है? तो अब चिंता किसकी है? यह सब जो दिखायी दे रहा है, इस सबका तो देर-सबेर नाश होना है। जो पराया है उसे छोड़े बिना छुटकारा नहीं है। छोड़ना ही पड़ेगा, ऐसे ज्ञानीपुरुषके वचन हैं, परंतु “निश्चय वाणी सांभळी, साधन तजवां नो'य; निश्चय राखी लक्षमां, साधन करवां सोय." . व्यवहारको त्याग कर शुष्कज्ञानीकी भाँति लूखे न बनें । यह स्याद्वाद है। खेद न करें। उदास (अनासक्त) रहें, उदासी (शोक) न रखें । अर्थात् समता, निर्लिप्तता, वैराग्य रखें, पर शोक, खेद, हाय-हाय न करें। सामान्य गुणके छह बोल हैं उन्हें मौखिक याद कर लें। (१) अस्तित्व, (२) वस्तुत्व, (३) द्रव्यत्व, (४) प्रमेयत्व, (५) अगुरुलघुत्व, (६) प्रदेशत्व । ये अनुपूर्वी और (६) प्रदेशत्व, (५) अगुरुलघुत्व, (४) प्रमेयत्व, (३) द्रव्यत्व, (२) वस्तुत्व, (१) अस्तित्व-ये पच्छानुपूर्वी ऐसा बोला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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