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________________ उपदेशसंग्रह-२ ३२५ चाहिये । हे भगवान! मुझे नहीं तो मेरे पड़ौसीको हो! ऐसा समझकर सच्ची बात बताये देते हैं। किसीके भी दोष देखना विषपान जैसा है। मात्र चेतानेके लिये कहना पड़ रहा है। माघ सुदी १,सं. १९८३, सबेरे ['अमितगति श्रावकाचार मेंसे 'दान अधिकार के वाचन प्रसंग पर] किसी भी निम्न वर्ण-जैसे कि ढेढ, भंगी, वाघरी (वागुरिक) आदि-द्वारा दिया गया प्रसाद यहाँ नहीं बाँटना चाहिये। कुछ ढेढ यहाँ नारियल और पैसे रख जाते हैं, उन्हें नारियल वापस लौटा दें और पैसे भंडारमें डाल दें। उसका उपयोग साधारण खातेमें मंदिर मकान बनानेके लिये किया जा सकता है। किन्तु प्रसादके रूपमें कुछ भी नहीं लेना चाहिये। काशीमें एक वेश्याने ब्राह्मणोंको भोजन करा कर पाप दूर करनेके लिये ब्राह्मणोंको भोजनके लिये निमंत्रित किया। वहाँ ब्राह्मणोंके स्थान पर, अकालके कारण जनेऊके धागे पहनकर पेट भरने काशीमें आये हुए पाँचसौ हिजड़ोंने भोजन किया। दक्षिणा देते समय उस वेश्याने अपने पापसे छूटनेके लिये उन ब्राह्मणोंसे बात की। तब उन ब्राह्मणवेशधारी हिजडोंने भी अपनी सच्ची बात कह दी। यों 'जैसेको मिला तैसा, तैसेको मिला ताई, तीनोंने मिलकर तूती बजाई' वाली कहावतकी तरह हुआ। फाल्गुन वदी ११, सं.१९८३ अनन्तकालसे इस जीवको भटकानेवाले पाँच इंद्रियोंके विषय तथा क्रोध, मान, माया और लोभरूप कषाय हैं। इनके जैसा अन्य कोई शत्रु नहीं है। क्रोधसे प्रीतिका नाश होता है, मानसे विनयका नाश होता है, मायासे मैत्रीका नाश होता है और लोभसे तो सब-कुछ नष्ट हो जाता है ऐसा सूत्रमें कहा गया है। अनादिकालका लोभ छूटता नहीं, अतः उसे कम करनेके लिये हे भगवान! ये सौ-सवासौ रुपये जिन्हें मैं अपना मानता था, उनका त्याग करता हूँ, लोभ प्रकृतिको छोड़नेके लिये दान करता हूँ। पुण्य प्राप्त हो, या परभवमें स्वर्गके सुख मिले, इसके लिये अब मैं दान नहीं करूँगा। किसी कुत्तेको रोटीका टुकड़ा डालूँ या भिखारीको मुट्ठी भर चने दूं, वह भी हे भगवान! उतना लोभ कम करनेके लिये दूं। लोभ छूटे तभी दिया जाता है। पर यदि भिखारीको देकर मनमें परभवमें प्राप्त करनेकी इच्छा रखें तो वह दान देनेवाला भी भिखारी ही है। कोई करनी बाँझ नहीं होती, करनीका फल तो मिलता है। पर जो लौकिक भावसे आज तक दान दिया है, उसका फल प्राप्तकर देवलोककी ऋद्धि सिद्धि भोगकर, पुण्यके क्षय होने पर पृथ्वी, पानी, वनस्पति, पशु-पक्षी, साँप-चूहा, कुत्ते-बिल्लीके भव धारण कर परिभ्रमण करना पड़ता है। अतः हे भगवान! किसी संतके योगसे अब जो दान-पुण्य करूँ वह अलौकिक दृष्टिसे करूँ, जन्म मरणसे छूटनेके लिये करूँ-ऐसी भावना कर्तव्य है। इस मंदिरकी दान-सूचीमें जो-जो दान लिखा रहे हैं, उन्हें हमने तो सावधान कर दिया है और यही बात कहते हैं कि अब जन्ममरणसे छूटनेके सिवाय अन्य इच्छा रखना योग्य नहीं है। फिर भी, जो अनाजके लिये खेती करते हैं, उनके घास तो अवश्य होती ही है। इसी प्रकार मोक्षकी इच्छासे जो क्रिया करते हैं, उन्हें भी मोक्षमार्गमें सहायक पुण्यका बंध होता है। वह For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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