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________________ ३०४ उपदेशामृत मुनि मोहन०-कलेक्टर और वायसरॉय विलायतसे आते हैं उसके पहले उनके लिये बंगला, फर्नीचर आदि तैयार रहता है, वैसे ही जीव जो कर्म उपार्जन करता है, उसीके कारण उसे सब प्राप्त होता है। प्रभुश्री-पैसेवालेके घरमें जन्म होना वह इसके जैसा ही है। कहाँ परिश्रम करना पड़ता है? पिता इकट्ठा करके गये वह सब उसे मिलता है। अन्यथा दूसरे लोगोंको एक पैसेके लिये कितनी मेहनत करनी पड़ती है? पैसेवालेको तो अधिक सावधान रहना चाहिये। उसे मौजशौक और अनीतिमें खोनेके अनेक प्रसंग आते हैं। क्योंकि पुण्यके कारण वैसे संयोग तो मिलते हैं पर स्थान स्थान पर बंधनके कारण तो खड़े हैं। यदि चेता न जाय तो ऐसा भव फिर नहीं मिलता। मनुष्यभव महादुर्लभ है। किसी पशु या बैलको लाकर खड़ा कर दें तो वह कुछ समझेगा? यह मनुष्यभव है इसलिये कहते हैं कि इस संयोगको व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिये। पेथापुरमें एक कार्यभारी था वह नित्य हमारे पास आता। उसने ‘मोक्षमाला' पूरी पढ़ी और हम वह सुनते। उसकी क्या समझ थी! उसकी आँखमें आँसू आ जाते । ऋणानुबंधसे सब संयोग मिलते हैं। माणेकजी सेठके कारण ये भाई (लश्करी) और इनके कारण ये इंजीनियर साहब यहाँ आये। यों ही पहली पहचान कहने सुननेसे ही होती है। इन दुर्गाप्रसाद और माणेकजी सेठका तो घर जैसा संबंध है। यह क्या पूर्वके संबंधके बिना हो सकता है? हमसे कुछ कहा नहीं जा सकता। किन्तु दिखायी दे वैसा और सबको समझमें आये ऐसा है कि पहले कुछ किया होगा तब यह मनुष्यजन्म, आर्यदेश और ऐसा संयोग प्राप्त हुआ है। कुछ त्याग भी करनेकी आवश्यकता नहीं और साधु बननेकी भी कोई खास जरूरत नहीं, पर समझ बदलनेकी जरूरत है। समझदारका मार्ग है। जो त्यागता है उसे तो आगे मिलता है, पर इस पुण्यपापसे छूटनेकी जरूरत है। आत्मा पर दया करनी चाहिये । आत्मघाती महापापी। समझकर असंग होनेका मार्ग है। यदि यह मनुष्यभव गुमा दिया तो ढोर-पशु कहाँ जन्म होगा उसका कुछ पता नहीं है। फिर कुछ समझमें आयेगा क्या? सावचेत होना चाहिये प्रभु! और क्या कहें ? (प्रभुश्रीने 'तत्त्वज्ञान में से क्षमापनाका पाठ निकालकर एक मुमुक्षुसे कहा-) प्रभु! यह चंडीपाठकी तरह नित्य नहा-धोकर करनेका पाठ है। कण्ठस्थ हो जाय तो करने योग्य है। हो सके तो रातको सोनेसे पहले भी इसके विचारमें ही रहें। भरत चक्रवर्ती प्रतिदिन उठनेके समय ऐसा कहलवाते थे कि 'भरत चेत, भरत चेत, भरत चेत'-यों तीन बार कहलवाते थे। बड़े चक्रवर्ती थे, नरकमें जाने योग्य काम करते थे, किन्त समझ दूसरी थी। पूर्वबद्ध पुण्यको भोगते हुए भी श्री ऋषभदेवकी आज्ञाको नहीं भूलते थे। नहीं तो, यदि अंतमें इतने वैभवको न छोड़ें तो नरकमें ही जायें। एक दिन श्रृंगारकर राज्यसभामें जाते समय उन्होंने दर्पणमें देखा कि एक अंगुलिमेंसे एक अंगूठी कहीं गिर गई है और वह अंगुलि खाली खाली लग रही है। यह देखकर उन्होंने दूसरी अंगूठी भी निकाल ली तो दूसरी अंगुलि भी शोभाहीन दीखने लगी। यों सब आभूषण और वस्त्र निकालकर अपने शरीर और स्वरूपके विचारमें पड़ गये। यों विचारते-विचारते उन्हें केवलज्ञान हो गया। अतः राजपाट छोड़कर चल पड़े। उनके वैभवके आगे हमारी क्या गिनती है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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