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________________ उपदेशसंग्रह - २ २८७ हितकारी है । प्रभुत्व उन्हें अर्पण कर हमें दीनता, दासता, परम दीनतामें रहना योग्य है । चाहे जैसे भी कषाय कम करने हैं। बुढ़ापेके कारण बैठा नहीं जा सकता, यों सो जाना भी पड़ता है, पर क्या भाव दूसरा था ? गुरु कहे वैसे करना चाहिये, करे वैसे नहीं करना चाहिये । ता. १६-१-२६ ['मोक्षमाला' शिक्षापाठ ८ 'सत्देव' के वाचन प्रसंग पर ] यह सब मिथ्या है, राखकी पुड़िया जैसा है । यह कुरता, यह मकान, यह शरीर - यह सब जैसा है वैसा ही रहेगा क्या ? पुराना हो जाता है न ? फट जाता है, पुराना हो जाता है, नष्ट हो जाता है, तो इसमें क्या रखने जैसा है ? किसमें ममता करनी चाहिये ? क्या साथ ले जाना है ? सब यहीं पड़ा रह जायेगा। मेरे संबंधी, मेरे प्रियजन, मेरे हाथ, मेरे पाँव, यह सब मेरा मेरा करने पर भी कहाँ रहनेवाला है? बस इतना ही करना है कि मेरा कुछ नहीं है । जहाँ-तहाँ दिन पूरे करने हैं, कारावास पूरा करना है । खाना-पीना पड़े तो पागल कुत्तेकी भाँति खाया-न खाया कर बद्ध कर्म पूरे करने हैं। अंतरमेंसे सब निकाल देना है । किसके पुत्र और किसके संबंधी ? आत्माके सिवाय कोई सहाय करनेवाला नहीं है । और उसे तो एकमात्र सत्पुरुषने जाना है । अतः ऐसे एक सत्पुरुषमें ही चित्त रखना चाहिये । जो आत्मारूप हो गये हैं वे ही सत्य हैं। उन्होंने जाना है वही सच है । उनकी प्रत्यक्ष वाणी परसे किसी संतसमागम द्वारा उसकी प्रतीति कर उसकी पहचान कर लेनी चाहिये । अन्य सब ओरसे तो मर जाने जैसा है। मरनेवालेको चिंता कैसी ? यहाँसे जाना ही है तब यहाँकी चिंता क्यों रखी जाय ? जहाँ-तहाँसे उठ जाना है और घरको जान लेना है । जैसे छोटा बच्चा अपनी माँको पहचानता है अतः अन्य कोई 'आओ, आओ' कहे, फिर भी वह मना कर देता है। कोई उसे कंधे पर बिठाये तो भी उसकी दृष्टि माँकी ओर ही रहती है। पर पहचान न हो तब तक जो बुलाये उसके पास चला जाता है । पहचान होनेके बाद तो दूसरे के बुलाने पर भी उसके पास नहीं जाता । I मेरा-तेरा छोड़कर, कोई कुछ भी कहे उसे सहन करना चाहिये । दुःख आये उसे सहन करे । क्षमापूर्वक सहन करना चाहिये । तप कहो, क्षमा कहो, चारित्र कहो - सभी इसमें आ जाता है। बुरा नहीं लगाना चाहिये । धैर्य रखना चाहिये । आत्माकी दया रखें। इसे दाग न लगने दें। सत्पुरुषने जिसे जाना है, वही आत्मा है । पापसे डरते रहना चाहिये । उपयोग रखना चाहिये। जिससे विभाव परिणाम न हो वही अहिंसा; और ममता, रागद्वेष द्वारा आत्माकी विस्मृति हो, उसका घात हो वही हिंसा है । पहले मात्र कथनसे 'यह ठीक है, यह ठीक है' ऐसा प्रत्येकको लगता है, पर सत्य प्रकाशमें आ जाय तो कल्याण हो जाता है । * कुत्ते और कीड़ेके दृष्टांतमें कीड़ेका उद्धार होता है, किन्तु पूर्वमें जो * एक गुरु थे, वे शिष्योंसे पैसा लेते थे। शिष्य भी भाविक होनेसे महंत समझकर उन्हें पैसे देते थे । वह गुरु मरकर अयोध्यामें कुत्ता हुआ । उसके शिष्य उसके सिरमें कीड़ोंके रूपमें उत्पन्न हुए और सिरकी पीप और खून खाते थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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