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उपदेशामृत
ता.५-१-२६
[गोमट्टसारमेंसे कषायमार्गणाका वाचन] कृपालुदेवने चार कषायोंको चार चक्रवर्ती कहा है । उनको जीतना चक्रवर्तीको जीतनेके समान है। रागद्वेषरूपी बैलसे कषायरूपी कृषक मिथ्यात्व बीज बो रहा है। वह कैसा फल देता है? अरे! अनंत संसारमें भटकाता है। यह शत्रु है, इसे नहीं मारेंगे? मर! मर! स्थान स्थान पर मर जाने जैसा है। हाँ, मृत्यु न होती और भले ही वृद्धावस्था, रोगोंसे जर्जरित यह शरीर ऐसा ही चलता रहता तो ठीक, धीरज रख सकते हैं। किन्तु यह दो घड़ी दिन जितना यह मनुष्यभव मिला है, इसका क्या भरोसा? कितने दिन जीना है? क्या सदैव बैठे रहेंगे? तब मृत्युको कैसे भूल सकते हैं ?
जो सम्यक्त्वका, आत्माके शुद्ध परिणामका घात करे, वह कषाय । अरेरे! यह तो कसाई ही है। इससे बड़ा पाप क्या है? मोहनलालजी कहते हों या हम कहते हों किन्तु मनमें यह विचार आये कि ये तो ऐसा कहते हैं, पर ऐसा होना चाहिये । ये बड़े हैं अतः क्या कहें? अन्यथा वास्तविक तो यह है। ऐसे भाव आयें वह क्या है? जीवने सामान्य कर दिया है। इस चंदनवृक्षकी हवा आना भी दुर्लभ है। इस कालमें यह मिलना महा दुर्लभ है । एक ज्ञानीकी दृष्टिसे जो सच है, वही सच है। शेष तो बाहरसे भले ही शीतल दीखता हो, पर ज्ञानी कहे कि वह रागी है तो वह सत्य है; और बाहरसे क्रोधी दीखता हो पर अंतरपरिणाम सम्यक् भी होते हैं। एक शीतलदास बाबाजी थे। एक व्यक्तिने आकर उनसे नाम पूछा तो बोले-"शीतलदास।" फिर पूछा तो कहा-"शीतलदास।" यों दो-तीन बार उत्तर दिया, पर पाँच-सात बार पूछा तो बाबाजी चिमटा लेकर खड़े हो गये मारनेके लिये। तब उस व्यक्तिने कहा-"आपका नाम शीतलदास नहीं है, वास्तवमें तो अग्निदास है।" ऐसा हो जाता है।
मुमुक्षु-"आ अवनिनु कर भलु' (इस अवनिका भला कर) ऐसी परमकृपालुदेवने प्रार्थना की है, उसके अनुसार कृषि, कामिनी और कंचनके त्याग द्वारा टोलस्टॉय और लेनिनने रागद्वेषके त्यागके निमित्त स्वीकार किये हैं, अतः वे भी धर्मप्राप्तिके पात्र बन रहे हैं।
प्रभुश्री-वहाँ राजा है या नहीं? मुमुक्षु-राजाको तो फाँसी पर चढ़ा दिया।
प्रभुश्री-तब तो वहाँ अभी तक रागद्वेष हैं और वे भी तीव्र । इसी कारणसे ज्ञानियोंने उन देशोंको अनार्य कहा है। बाहरसे चाहे जैसा दिखायी देता हो पर ज्ञानीकी दृष्टिसे जो सत्य है, वही सत्य है। अन्य मुझे मान्य नहीं है। चाहे जैसा चमत्कार जैसा भले ही लगे, पर ज्ञानीको जो सच लगा वही मुझे मान्य है। इतना इस भवमें करने जैसा है।
एक त्यागी था, वह प्रतिदिन खाता था, फिर भी ऐसी बात फैल गई थी कि 'वह कभी निहार नहीं करता।' एक जैनको इसका पता लगा, अतः उसकी परीक्षा लेने मिठाई लेकर उस त्यागीके पास पहुँचा। भक्तिभाव दिखाकर उसे भली प्रकार भोजन करवाकर सेवामें रहनेकी आज्ञा लेकर वहीं रह गया। पूरे दिन कुछ पता नहीं लगा। पर प्रातः जब बाबाजी स्नानके लिये जाने लगे तब वह व्यक्ति भी उनके साथ गया। बाबाजीने स्नान करते करते डुबकी लगा दी तो विष्टा तैरकर
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