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________________ २४६ उपदेशामृत प्रत्यक्ष देखो। कुत्ते-बिल्लीको धर्मका योग नहीं है। अब मनुष्यभवमें योग है, तब चतुराई दिखा रहा है। थप्पड़ मारकर पाठ सिखाना है, भूल निकालनी है, उलाहना देना है। बुरेमें बुरा प्रमाद है। हमारा क्या है? क्या ये सब मेहमान नहीं है? किसी पर द्वेष नहीं है। क्या कोई अमरपट्टा लेकर आया है ? चमत्कारी है! भूला वहींसे फिर गिन।। ____ पहले किसीसे ऋण ले रखा हो तो देना पड़ेगा या नहीं? ऋण चुकाना पड़ता है, वैसे ही इस जीवको सब सुख, दुःख-जिसने जैसा किया हो वैसा फल मिलता है। स्त्री हो तो स्त्रीको और पुरुष हो तो पुरुषको भोगना पड़ता है। अब क्या करना है? तैयार होना है। कौवे कुत्तेको नहीं कहना है। यहाँ तक आये हो, सुनने बैठे हो तो सुन रहे हो । व्यापार-धंधेकी बातें करते हैं पर ये सब बंधका हेतु हैं। “सहु साधन बंधन थयां, रह्यो न कोई उपाय; सत्साधन समज्यो नहीं, त्यां बंधन शुं जाय?" संसारमें सब दौड़भाग और तूफान है। कितने ही मर गये बेचारे! माणेकजी सेठ तुम्हारे जैसे थे, पर गये न? अब कहाँसे लायें? आज अवसर आया है। छह खंडके भोक्ता भरतको कहा कि भरत चेत! चेताया न? यह तो जाने कितने पैसेवाला है, उसकी कुछ इच्छा ही नहीं है! बाल-बच्चे, खाने-पीनेका हो तो सुखी माने, पर यह तो चार दिनकी चाँदनी है! यह तो चला जायेगा। वास्तवमें दुःख किसका है? जन्म-जरा-मरणका । वह किसीको न हो ऐसा कुछ है? इस विषयमें विचार करना चाहिये कि यह बहुत दुःख है । 'अहो दुक्खो हु संसारो' ऐसा कहा है, वह चमत्कारी है! भूला वहींसे फिर गिन । ऋषभदेवके पुत्र जन्म-जरा-मरणसे त्रसित हुए, कार्यवाहकको राज्य सौंपकर चले गये और वे अठ्ठानवें ही केवलज्ञानको प्राप्त हुए। जड़को कुछ कहा जाता है? भरतको कहा कि चेत! यों सावचेत होना है। इस बातको लक्ष्यमें नहीं लेता। कहनेका तात्पर्य यह है कि इस बातको लक्ष्यमें लो। "हे परमकृपालुदेव! जन्म, जरा, मरणादि सर्व दुःखोंका अत्यंत क्षय करनेवाला वीतराग पुरुषका मूलमार्ग आप श्रीमान्ने अनंत कृपा करके मुझे दिया, उस अनंत उपकारका प्रत्युपकार करनेमें मैं सर्वथा असमर्थ हूँ। फिर आप श्रीमान् कुछ भी लेनेमें सर्वथा निःस्पृह हैं; जिससे मैं मन, वचन, कायाकी एकाग्रतासे आपके चरणारविंदमें नमस्कार करता हूँ। आपकी परमभक्ति और वीतराग पुरुषके मूलधर्मकी उपासना मेरे हृदयमें भवपर्यंत अखंड जागृत रहें, इतना माँगता हूँ, वह सफल हो। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः” यह बात कंठस्थ कर लें। इस बातको पचा लें। इसे प्रकट न करें। किसीसे कहें नहीं। चिंतामणिकी भाँति ध्यानमें रखें। उस परमकृपालुदेवको ज्ञानीने देखा है। देखता है? हाँ । ज्ञानी इससे बातें करते हैं। यह बात जड़की नहीं है। यहाँ पर जो आत्मा हो वे सब सुनियेगा। कहना किसे है? आत्माको; जड़को नहीं। वार करे उसकी तलवार । यही कर्तव्य है। ‘परमकृपालुदेव'की बात क्या साधारण है? बहुतसे लोग कहते हैं, 'ये कैसे परमकृपालुदेव?' पर उनकी जो दया प्रवर्तमान है वह आश्चर्यजनक है! पैसेसे, सोनेसे, चाँदीसे, महलसे काम नहीं होगा। अनेक भवोंमें पैसे तो मिले, फिर भी अनंत भव करने पड़े-नरकमें गया, जन्म-जरा-मरण किये वह भोगता आया है। जीव कहें या चेतन कहें उसके लिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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