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उपदेशामृत संयोग प्राप्त हुआ है तो चेत जाना चाहिये। उस स्थान पर पानी तो बरसता है पर उसके अपने अवसर पर । उस अवसर पर पानी भर लेना चाहिये। तो बादमें काममें आता है, अन्यथा मरना पड़ता है। __ मुमुक्षु-यहाँ मुझे तीन वर्ष हुए, पर परमकृपालुदेवकी कृपासे ऐसा कह सकता हूँ कि अब मुझे अन्य कुछ इच्छा नहीं रहती। यही इच्छा है कि सत्पुरुषके वचनमें दृढ़ श्रद्धा हो । सिर जाय तो भले जाय, पर वही दृढ़ होती रहे।
प्रभुश्री-यह भाव है और इच्छा है तो प्राप्ति होती है। जड़को होगी? सुखदुःख भोगते हों तो, उसकी इच्छा की थी इसलिये मिला है। जैसी इच्छा और भाव होते हैं वैसा मिलता है। अतः अन्य सबको अब छोड़ दे। पिताके बिना पुत्र नहीं। उसके बिना काम नहीं बनेगा। केवल इतनी ही कसर है। 'नहीं छोडु रे दादाजी, तारो छेडलो।' इतनी पहचान कर ले। स्वयं अपने आत्माको मानता है। इसमें अन्य कौन करेगा? विश्वास रखना या न रखना, यह किसे कहना है? इस जीवको मनुष्यभव दुर्लभ कहा गया है, उसे प्राप्तकर कुछ करता है तो उसका फल मिलता है। त्याग और वैराग्य दो बड़ी वस्तुएँ हैं। त्याग करे तो उसका फल मिले बिना त्रिकालमें भी न रहेगा। हाथमेंसे बाजी निकल गयी तो कुछ पता नहीं लगेगा। त्याग और वैराग्य इस जीवको अवश्य कर्तव्य है। मनुष्यभवमें जितना त्याग हुआ, वह संचित होकर साथमें आयेगा, अन्य नहीं आयेगा। अतः यह कर्तव्य है।
[एक बहनने चौथे व्रतकी प्रतिज्ञा ली] यह मनुष्यभव प्राप्त कर सबसे बड़ा व्रत चौथा महाव्रत (पूर्ण ब्रह्मचर्य) है। जिसने उसे ग्रहण किया और त्याग-वैराग्य करता है, उसे देवगति प्राप्त होती है। जहाँसे भूला वहींसे फिर गिन । अघटित कार्य किये हों तो उन्हें पुनः न करनेकी प्रतिज्ञा लेकर फिरसे व्रत ग्रहण कर।
'मेरा मेरा' कर रहे हैं। स्त्री-पुरुष कहाँ है? एक आत्मा है। ज्ञानीने उसे जाना है और उसकी सामग्री है उसे, वह जानता है। अन्य अज्ञान है। कोई किसीका नहीं हुआ । माया है, छोड़ दे, जाने दे। अभीसे समझ जा, तो कल्याण होगा। यहाँ बहुतसे उत्तम जीव हैं, उनका कल्याण होगा। उनके लक्ष्यमें आया और निश्चित हुआ तभीसे त्याग है। यह महाव्रत है, यह बड़ेसे बड़ा व्रत है।
“सबको कम करते करते जो अबाध्य अनुभव रहता है वह आत्मा है।" यह मातपिताके जैसा बताया। इसे मान्य करना चाहिये। स्पष्ट लिख दिया है। यह मोहकी जाल है, इसकी चिंता करता है और संभाल करता है। आत्माकी तो थोड़ी भी चिंता नहीं है कि मैं कौन हूँ, कहाँसे आया हूँ, मेरा स्वरूप क्या है, और मेरा क्या होगा? जितना गुड़ डालोगे उतना मीठा होगा। कहनेमें कुछ कमी नहीं रखी है। अपूर्व बात की है! जितना हो सके उतना त्याग करें। अन्य अपना नहीं है, इसीलिये कहना है । करनेसे ही छुटकारा है। किसके साथ जानेवाला है कि यह 'मेरा मेरा' कर रहा है?
ता. १६-१-३६, सबेरे १. मुमुक्षु-ढेलेकी प्रतिमा नहीं बनती। पत्थरकी प्रतिमा बनती है। २. मुमुक्षु-पर ज्ञानी गुरुकी वचनरूपी टाँकीसे टाँचने पर बनती है। १. मुमुक्षु-हरिभद्रसूरिजीने यह आठदृष्टिरूपी नक्शा तैयार किया है। जिसे आत्मारूपी मकान
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