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उपदेशसंग्रह-१
२३३ प्रभुश्री-जीव लौकिक दृष्टिमें प्रवृत्ति करता है, अलौकिकमें प्रवृत्ति नहीं करता। स्त्री हो या पुरुष, पर मनुष्यभव तो है न? अतः भले मानस, चेत जा न? कहीं लूट होती हो तो भागनेका, छिपानेका प्रयत्न करता है। अतः तुझसे जो हो सके वह कर ले। कौवे-कुत्तेके जन्ममें नहीं हो सकेगा। जन्म, जरा और मृत्यु, सब व्याधि, व्याधि और पीड़ा है।
___जीव ऐसा सोचे कि मेरे वंशमें कोई नहीं है, एक पुत्र हो जाय तो अच्छा । मर, बुरे! तेरा कुछ नहीं है। 'मेरा मेरा' करके दौड़ कर रहा है।
__ “आत्मा सच्चिदानंद।"
यह वाणी तो जो जानता है वही जानता है और जानता है वही उसके आनंदका उपभोग करता है। 'भगवती' जैसे बड़े ग्रंथ भी हों, पर उनकी अपेक्षा यह ('श्रीमद् राजचंद्र' ग्रंथ) महान सिद्धांतका सार है। पर भोला प्राणी चेतता नहीं। कल सुबह मौत आकर खड़ी रहेगी। 'प्राण लिये या ले लेगा' हो रहा है। कौन अमरपट्टा लिखाकर आया है? अतः चेतिये, ऐसा अवसर फिर नहीं मिलेगा। एक धर्म ही सार है। कहिये, इस जीवके साथ क्या है?
मुमुक्षु-भाव और परिणाम है।
प्रभुश्री-पहले मूल हाथ लगना चाहिये । वह सत् है; आत्मा है और उसके भाव होते हैं। जड़के भी भाव होते हैं, पर वे जड़, और चेतनके होते हैं वे चेतन। भाव तो है, पर एक सत्के (आत्माके)। अरे मेहमान, अतिथि! अब तो चेत जा। हमारी इतनी उम्रमें कितने कितने चले गये, वे याद भी हैं और भूल भी गये। सारा लोक त्रिविध तापसे जल रहा है, कहीं भी सुख नहीं है। वीतराग मार्ग अपूर्व है। 'शांति पमाडे तेने संत कहिये।' संत कहाँ है ? 'सत्'में, और 'सत्' कहाँ है? आत्मामें । जहाँसे भूला वहींसे फिर गिन । जब समझा तभी सबेरा। करना शुरू कर दे, भले आदमी! दिन बीत रहे हैं, क्षण क्षण सब छूट रहा है। जीवको वैराग्यकी कमी है। जैसा उत्साह व्यापार-धंधेमें, धन-दौलतमें, खाने-पीनेमें है और पाँच इंद्रियोंके भोगका लोभ है-उसीमें तल्लीनता है, वैसा उत्साह आत्माके लिये नहीं है। आत्माके लिये, धर्मके लिये तो प्रमादी! प्रमाद और आलस्य तो सबसे बड़े शत्रु हैं। अतः जो कर्तव्य है उसे कर, ऐसा दिन फिर नहीं आयेगा।
___ "ज्ञानापेक्षासे सर्वव्यापक, सच्चिदानंद ऐसा मैं आत्मा एक हूँ, ऐसा विचार करना, ध्यान करना।"
मुमुक्षु-इतने ही शब्द अद्भुत हैं! पर यह तो दवा सस्ती होने जैसा हुआ। जैसे लोहेके तपे हुए तवे पर पानीके थोड़े छींटे पड़े तो तुरंत ही जल जाते हैं वैसे ही अनादिकालसे रागद्वेषसे तप्त इस आत्मा पर ये शब्द तुरंत असर नहीं करते। जब असर करेंगे तब अपूर्व आनंद आयेगा। आप कहते हैं कि योग्यता नहीं है, तो अपने हृदयसे पूछे कि योग्यता क्या है ? तो हृदय कहेगा कि तू पात्र नहीं है। जिस प्रकारके आत्माके गुण चाहिये वे अभी प्रगट नहीं हुए हैं।
प्रभुश्री-मरुभूमि हो और वहाँ जाना हो तो खूब पानी भर लेते हैं न? बीचमें, अधबीचमें यदि पानी न रहे तो भटकता फिरे, कंठ सूखे और कैसी वेदना हो? वह तो भोगनेवालेको ही पता लगता है। मध्यमें होनेसे न इधर जा सकता है और न उधर और 'पानी, पानी' करता है। ऐसे समयमें यदि एक मेघवृष्टि हो जाय और पानी भर जाय तो फिर प्यास रहे? न रहे। वैसे ही इस जीवको
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