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उपदेशामृत
२. मुमुक्षु - आपको तो साक्षात् प्रभु मिले !
प्रभुश्री- - बस इतनी ही आवश्यकता है - मिलनेकी, पहचाननेकी, बोधकी और सत्संगकी । इसी बात इच्छुक, इच्छुक और इच्छुक होना है । सत्संग किया है? आपकी देरीसे देर है, केवलज्ञान हुआ उसका अन्य किसीको पता लगा ? नहीं। वह तो उसे ही, स्वयंको पता चला। अब भावना तो उसीकी करनी चाहिये, अन्यकी नहीं । कृपालुदेवने मुझे लिखकर बताया, 'आतमभावना भावतां जीव लहे केवळज्ञान रे ।' यों थोड़ेमें बहुत मर्म समझमें आ जाता है । पर यह निर्णय करे तो दशा सुधरती है । आत्माके सिवाय कोई अन्य निर्णय कर सकता है ? यह तो वही बोध देगा और उसीका काम है, अन्यका नहीं । अन्य अनेक भव प्राप्त किये, रिद्धिसिद्धि देवलोक आदि प्राप्त किये। अनेक-अनेक भव प्राप्त किये पर एक आत्माको नहीं जाना । उसे जाननेकी आवश्यकता है । आठवीं दृष्टिकी शक्ति महान है । महान है यह दृष्टि !
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१. मुमुक्षु - यह तो यह स्थान भी महान है । संप्रदायमें थे तब पढ़ते तो थे, पर ऐसी समझ नहीं थी ।
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प्रभुश्री - पहले तो हम भी पढ़ते थे, पर अंजन लगाया तब समझमें आया ।
१. मुमुक्षु - जिनके द्वारा लिखी गयी हो, वे या वैसे प्रत्यक्ष ज्ञानी हों, तब उनके सन्मुख वह समझमें आये ऐसा है ।
प्रभुश्री - यही बात है । एक आत्मा न हो तो कुछ काम हो सकता है ? कुछ काममें आता है ? कुछ भी नहीं । इस पर कुछ गहन विचार करना चाहिये। क्या कहें ? 'कह्या विना बने न कछु, जो कहिये तो लज्जइये ।'
३. मुमुक्षु - पहले संप्रदायमें भी यही पढ़ते थे, तब क्या आत्मा नहीं था ? वहाँ रस क्यों नहीं आता था? और अब रस क्यों आता है ?
प्रभुश्री - किसीको बुखार आता हो और बीमार हो, तब कुछ नहीं भाता, रुचि नहीं होती, अच्छा नहीं लगता और खाया नहीं जाता । किन्तु दूजा नीरोग हो उसे कहे तो ? दोनोंमें अंतर पड़ गया न ? उसके खाने, पीने, स्वभाव, रुचिमें अंतर पड़ा न ? वैसे ही है। यह तो उसे पता नहीं लगा है, सामने परदा आ गया है, आवरण आ गया है । बीचमेंसे आवरणरूपी परदा दूर हो तब पता लगता है । देखिये न, इस देहमें बैठा है तो सब है और कैसा लगता है ! और वह न हो तो ? वर्ण, रस, गंध, सब बदल जाते हैं। वह निकल जाय तो मरण हो गया कहते हैं और जला डालते हैं । १. मुमुक्षु - तब तो घरके लोग ही जल्दबाजी मचाते हैं कि इसे शीघ्र ले जाओ और तुरत जला
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डालो ।
प्रभुश्री - यह तो कोई अमूल्य बात है । इसे जानने और देखनेकी बात होगी तब तो अजबगजब लगेगा ।
१. मुमुक्षु -ज्ञानीका वास्तविक उपकार क्या है, उसका पता तभी लगेगा ।
" षट् स्थानक समजावीने, भिन्न बताव्यो आप; म्यानथकी तरवारवत्, अ उपकार
अमाप . '
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