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________________ [२७] स्थानकवासी मुनियोंने सद्गुरुकी आज्ञासे सर्वप्रथम ईडरमें जिनप्रतिमाओंके दर्शन किये, जिससे उनको अपूर्व उल्लासभाव आया। श्रीमद् द्वारा बताये गये पहाड़के ऊपरके सभी स्थान ठाकरशीने सभी मुनियोंको बताये। एक पहाड़ीपर दिगम्बर मुनियोंके समाधि-स्थान तथा स्मरणस्तूप हैं तथा पासमें ही स्मशान, कुण्ड, गुफा हैं उन्हें देखनेके लिए भी मुनियोंको भेजा था। तीसरे दिन उसी आम्रवृक्षके नीचे आनेकी आज्ञा हुई थी तदनुसार सातों मुनि वहाँ प्रतीक्षा कर रहे थे, इतनेमें श्रीमद्जी वहाँ पधारे । सर्दियोंकी ठण्ड भी थी और श्री देवकरणजीका शरीर अशक्त था, इसलिये वे काँपते दिखायी दिये अतः लक्ष्मीचंदजी मुनिने अपना ओढा हुआ वस्त्र श्री देवकरणजीको ओढाया। यह देखकर श्रीमद्जी बोले, "ठण्ड लग रही है? ठण्ड भगानी है?" यह कहकर वे एकदम शीघ्रतासे चलने लगे। सभी उनके पीछे-पीछे वेगपूर्वक चले । काँटे, कंकर, झाड़झंखाड़ पार कर श्रीमद्जी, थोड़ी दूर एक ऊँची शिला थी उसपर पूर्वकी ओर मुँह करके बिराजमान हुये। सभी मुनि उनके सन्मुख आकर बैठ गये। अनेक वर्षों से ईडरके पुस्तक भण्डार पर श्वेताम्बर-दिगम्बरके स्वामित्वको लेकर झगड़ों के कारण ताले लगे हुए थे। ईडरके महाराजाकी पहचानसे वह भण्डार देखनेका अवसर श्रीमद्जीको मिला था। उसमेंसे हस्तलिखित 'द्रव्यसंग्रह' ग्रंथ श्रीमद्जी यहाँ लाये थे। वह आधा ग्रंथ यहाँ सबको पढ़ सुनाया। इतने में श्री देवकरणजी बोल उठे, “अब हमें गाँवमें जानेकी क्या आवश्यकता है?" श्रीमद्ने कहा, “कौन कहता है कि जाओ?" श्री देवकरणजी बोले, "क्या करें? पेट लगा है।" श्रीमद्ने कहा, "मुनियोंका पेट तो जगतके कल्याणके लिए है। मुनिको पेट न होता तो वे गाँवमें न जाकर पहाड़की गुफामें रहकर केवल वीतराग-भावसे जंगलमें ही विचरते, जिससे जगतके लिए कल्याणरूप न हो पाते । अतः मुनियोंका पेट जगतके हितके लिए है।" ध्यानके विषयकी चर्चा करते हुए श्रीमदजीने कहा, "ध्यानमें जैसा चिंतन करे वैसा योगाभ्यासीको दिखायी देता है। उदाहरणस्वरूप, ध्यानमें आत्माको भैंसे जैसा सोचकर इस पहाड़के समान उसकी पूँछ होनेका सोचे तो उसे आत्मा उसी रूपमें भासित होगा। पर वास्तवमें वह आत्मा नहीं है, किंतु उसे जाननेवाला जो है, वह आत्मा है।" एक दिन उसी सांकेतिक आम्रवृक्षके नीचे सातों मुनियोंके साथ श्रीमदजी बिराजे हुए थे तब मुनि मोहनलालजीने श्रीमद्से शिकायत की कि “आहार करनेके बाद मुझे मुहपत्ती बाँधनेमें समय लगता है इसलिये महाराज (श्री लल्लुजी) मुझे दण्ड देते हैं।" श्रीमद्जीने कहा, “सभी मुहपत्ती निकाल दें और ईडरके आसपास बीस कोस तक न बाँधे । कोई आकर पूछे तो शांतिसे बातचीत करके उसके मनका समाधान करें।" कल्पवृक्षके समान उस आम्रवृक्षके नीचे अंतिम दिन सातों मुनि जल्दी आकर श्रीमद्जीकी प्रतीक्षा कर रहे थे, इतनेमें श्रीमद्जी पधारे और सबको विकट मार्गसे ले जाते हुए चलने लगे। वेलसीरख नामक एक वृद्ध मुनिने कहा, “आज मण्डलमेंसे एकाध मुनिको यही छोड़ जायेंगे क्या? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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