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________________ २१० उपदेशामृत २. मुमुक्षु-भेदका भेद तो पर्यायदृष्टि दूर हो तब मालूम होगा न? प्रभुश्री-भेदका भेद कह चुके हैं। यह सब क्या दिखाई दे रहा है? पर्याय । वह भी वस्तु (आत्मा)के बिना दिखाई देगा क्या? भगवानने कहा है कि अरूपी। फिर उसे देख सकेंगे? भले ही कहिए तो सही कि 'चाचा।' दिखाई देंगे? नहीं दिखाई देंगे। इसलिये मात्र एक पहचान कर ले। “एक आत्माको जान, उसकी कर ले पहचान।" २. मुमुक्षु-दिव्य चक्षु प्रदान करें तब न? प्रभुश्री कृपा चाहिये । कल्याण तो कृपालुकी कृपासे होगा। राजाकी करुणादृष्टिसे जैसे सब कमा खाते हैं; वैसे ही जीवको होना चाहिये । कृपादृष्टि प्राप्त करनी चाहिये । वही दृष्टि । कर ले पहचान । 'एक मत आपडी के ऊभे मार्गे तापडी।' चमत्कार है, प्रभु! “आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे।" बच्चेसे बोझ नहीं उठाया जा सकता, उसकी शक्तिके अनुसार उठाया जा सकता है। "बाल धूलिघरलीला सरखी, भवचेष्टा इहाँ भासे रे." अतः अबसे एकको ही भजो, तैयार हो जाओ। कमर कस लो । अब क्या है? मुझसे अब अधिक बोला भी नहीं जाता। १. मुमुक्षु-आपने अभी कहा कि मुझसे बोला भी नहीं जाता; परंतु कृपालुदेव तो लिखते हैं कि निग्रंथ महात्माके दर्शन-समागम मोक्षकी प्रतीति कराते हैं। अतः नहीं बोलने पर भी वह तो ऐसा ही है। ___ प्रभुश्री-कहूँ? और कहना ही पड़ेगा कि पढ़ा भी नहीं है, समझा भी नहीं है और दर्शन भी नहीं हुआ है। यह कहा, तो उसके लिए कुछ कमी होगी। बहुत भूल है। जैसे बच्चा भूल करता है इतनी भूल आ गई है और भूलमें ही हैं। किसीको चतुर बनने जैसा नहीं है। कृपालुदेवने मुझसे कहा कि देखते रहो न! पर यह जीव अंदर सिर घुसा देता है, तो फिर 'सींगोंमें उलझेगा ही न? १. मुमुक्षु-आपको कृपालुदेवने कहा कि देखते रहो, तब आप क्या देखते थे? प्रभुश्री-जो कहा वह। करना तो चाहिये। इसके सुननेसे, श्रद्धा करनेसे ही छूटनेकी बातकी आत्मासे गुंजार होगी। योग्यताकी कमी है। अतः तैयार हो जाइये । ता. ११-१-३६, सबेरे पत्रांक ६४ मेंसे वाचन पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु ।। युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः॥-श्री हरिभद्राचार्य १. एक सेठ प्रतिदिन दातुन करने चबूतरे पर बैठते। तब भैंसें पानी पीने जाती। उसमेंसे एक भैसके सींग बहुत गोल थे। उसे देखकर सेठको नित्य विचार होता कि इसमें सिर आ सकता है या नहीं ? छह महीने तक नित्य यही विचार होता रहा। फिर एक दिन उसने निश्चय कर लिया कि सिर घुसा कर ही देख लूँ। फिर उठकर सामने गया और उस भैसके दोनों सींगोंके बीच अपना सिर फँसाया। भैंस घबराकर दौड़ने लगी, सेठ घिसटने लगे। फिर लोगोंने सेठको छुड़ाया और ठपका दिया कि भले आदमी, विचार तो किया होता कि ऐसा करना चाहिये क्या? सेठने कहा कि मैं छह महीनेसे नित्य विचार करता था, विचार करके ही तो किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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