SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेशसंग्रह-१ २०१ अज्ञान है। अतः यह करना है, इसमें सावधानी रख । इसको याद करनेसे काम बन जाता है। यह तो सब मिलावट कर रख दिया है। अतः चेत जायें। ऐसा अवसर पुनः कहाँ मिलेगा? बहुत लाभ है, करने जैसा अवसर प्राप्त करके भी न करे तो फिर क्या? गफलतमें समय बीत गया तो फिर हो चुका! वृत्तिका स्वरूप नहीं जाना । ज्ञानीने तो बहुत कहा है। पढ़ जाता है पर विचार नहीं करता। जो क्षण बीत रहा है वह वापस नहीं आयेगा। 'समयं गोयम मा पमाए।' ऐसा कहनेवाले क्या पागल थे? 'सत्पुरुष वही है कि जो रात-दिन आत्माके उपयोगमें है।' यह बोलिये। १. मुमुक्षु-"सत्पुरुष वही है जो रात दिन आत्माके उपयोगमें है, जिसका कथन शास्त्रमें नहीं मिलता, सुननेमें नहीं आता, फिर भी अनुभवमें आ सकता है। अंतरंग स्पृहारहित जिसका गुप्त आचरण है; बाकी तो कुछ कहा नहीं जा सकता।" प्रभुश्री-यह सब तुंबीमें कंकड़ जैसा है। इसका मर्म नहीं जाना, भेद नहीं समझा, समझमें आया ही नहीं। यह चमत्कारी बात है! यह तो महान मंत्र है, कथा नहीं। पहले सत्पुरुष पर विश्वास रख, फिर उसे मान्य करके जैसे जगतके काम करता है, वैसे ही यह काम कर । यह सब बताया इसमें मात्र मान्यताभाव कर। “दूसरा कुछ मत खोज, मात्र एक सत्पुरुषको खोजकर उसके चरणकमलमें सर्वभाव अर्पण करके प्रवृत्ति किये जा। फिर यदि मोक्ष न मिले तो मुझसे लेना।" लो, यह सारे संसारके सिर पर वज्रमय ताले लगा दिये कि फिर खुलें ही नहीं, और विष उतारे ऐसा है। सत्पुरुष क्या है? १. मुमुक्षु-आत्मा। प्रभुश्री-सत्पुरुष कौन? २. मुमुक्षु + 'मळ्यो छे एक भेदी रे, कहेली गति ते तणी' प्रभुश्री-सीधे । खोलो, खोलो।। २. मुमुक्षु-आपको भेदी मिला है, यह तो निश्चित है। प्रभुश्री-वह तो मना नहीं कर सकता, पर बात भाव पर है। करना पड़ेगा। भाव बढ़ाये तो आत्मा और घटाये तो भी आत्मा। आत्माका भाव है। पहले पहचान चाहिये। उसके बिना कचास है। ‘सवणे नाणे विन्नाणे।' विज्ञान आये तो पूछने नहीं जाना पड़ेगा। जिसका काम है उसीका है, दूसरेका नहीं। 'जब जागेंगे आतमा तब लागेंगे रंग।' कहा नहीं जा सकता। बातें तो बहुत की है। कमी योग्यताकी है और ताले खुले नहीं हैं। सभी ज्ञान, केवलपर्यंत एक आत्माको ही होंगे। यहाँ पर तो विचारका काम है, अन्यका नहीं है, आत्माका है। गुड खायेगा उसे मीठा लगेगा। अब इसका उपाय चाहिये ना?-कि यह मार्ग। अतः कहो, कौनसा मार्ग? ३. मुमुक्षु-सत्पुरुषके समागममें बोध सुनकर सत्पुरुषार्थ करना। प्रभुश्री-बात तो ठीक की। पर ‘परंतु' आया वहाँ बाकी रह गया। किसीका अपमान कैसे किया जाय? अतः ‘परंतु' कहा तो कुछ कहना पड़ेगा। अभी बराबर कहलवाता हूँ अतः कहो। __ + हमें एक भेदी (आत्मज्ञानी) मिल गया है, उसकी गति (दशा) तो जैसी कही है वैसी ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy