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________________ २०० उपदेशामृत १. मुमुक्षु-आप हमें देखें और हम आपको न देखें और हमें भी न देखें, यह कैसी खूबीकी बात है! प्रभुश्री-अंजन होना चाहिये, वह नहीं हुआ। ३. मुमुक्षु-तब चश्मा बदल दीजिये। उलटेके सीधे कर दीजिये। प्रभुश्री-प्रभुकी, कृपालुकी कृपा है! आप बड़े हैं। धीरे धीरे ऐसा हो गया। बहुत होशियार है! यह सब कौन देखेगा? आत्मा : ज्ञानी, अज्ञानी। भूल है कि आत्माको जाना नहीं । जाननेसे आस्रवका संवर होता है, और संवर ही आत्मा है। १“पुद्गल खाणो, पुद्गल पीणो, पुद्गल हुंथी काया; वर्ण गंध रस स्पर्श सहु ए, पुद्गल हुंकी माया, संतो देखिये बे परगट पुद्गल जाल-तमासा. महापुरुष बिचारे पुकारकर चले गये। जिसने जाना है, ऐसा भेदी मिलेगा तो काम बन जायेगा। उसके बिना छुटकारा नहीं है। जैसे परस्पर बदला व्यवहारमें करता है, वैसे ही करना पड़ेगा; उसके बिना काम नहीं चलेगा। * * ता.८-१-३६,शामको यह जीव तो पैसेका, पूजा-मान आदिका भिखारी है। पर जो चैतन्य अपना आत्मा है, उसका भान नहीं है, चिंता भी नहीं है। उसका क्या धर्म है, जानना चाहिये । इससे काम होता है, देवगति होती है। व्यवहारमें कमाई करके जो संग्रह करता है वह भी कर्ममें हो तभी रहता है । अज्ञान और मिथ्यात्वसे सब बुरा हुआ है। वह मेरा नहीं। 'पवनसे भटकी कोयल।' आत्माके साथ एक सुई भी नहीं जायेगी। मूर्ख होगा वह नहीं चेतेगा। विशेष गहन उत्कंठा पूर्वक चेतना चाहिये। वैरी और शत्रु तो कर्म हैं, वे आत्माका घात करनेवाले हैं और उन्हींके साथ मित्रता कर रखी है! कुसंग हो गया है। अब छोड़ दे, अवसर आया है। मनुष्यभव दुर्लभ है। अन्य जन्ममें सुननेको नहीं मिलेगा। मनुष्यभवको दुर्लभ कहा है, उसका सदुपयोग न करे तो पशु समान है। इस संसारमें मनुष्यभव प्राप्त कर क्या किया? अन्य सब चित्र-विचित्र, आत्मा नहीं है, सब पुद्गल हैं। 'संतो, देखिये बे पुद्गल जाल-तमासा ।' यह तेरा नहीं है, अतः समझ जा। चेत जा। गिनती कर अपने आत्माके लिये । बाल-बच्चे तेरे नहीं है और होनेवाले भी नहीं। अंतमें अकेला जायेगा। अतः विचार करने योग्य है। 'भूला वहींसे फिर गिन।' अवसर आया है। ये सब बैठे हैं और सुनते हैं, उससे भी पुण्यका संचय होता है। इसका किसीको पता नहीं । उसका पता हो तो काम बन जाय । बहुत भूल है और घाटेमें जा रहा है। अनजान और अंधा! जगत अनजान और अंधा है। जिसे गरज होगी, उसके कामका है। आयुष्यमेंसे जितना समय इसमें गया, वही सफल है। जाने-अनजाने भी इसमें समय बीतेगा वह सफल है। पर सामान्यपनेमें निकाल दिया है । सब एक समान समझ लिया है वह १. चिदानंदजी पुद्गलगीतामें कहते हैं कि पुद्गल खाता है, पुद्गल पीता है, शरीर भी पुद्गलका ही बना हुआ है; वर्ण, रस, गंध, स्पर्श ये सब पुद्गलके ही गुण हैं, पर्याय हैं। हे संतों! संसारमें चारों ओर पुद्गलका ही खेल दिखाई दे रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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