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________________ १९८ उपदेशामृत ता.७-१-३६, सायंकाल शिथिलता और प्रमाद विषके समान हैं, शत्रु हैं, इनसे बुरा हुआ है। मनुष्यभव प्राप्त किया तो यह ध्यानमें रखना चाहिये, यह अपने लिये ही है। विषयोंने जीवका बुरा किया है; वे शत्रु हैं। 'जागे तबसे सबेरा' 'समयं गोयम मा पमाए' अब कब तक पड़े रहोगे? यह सब मायाका है, वह नहीं है। आत्माकी खबर लेनी है। ज्ञानीने उस आत्माको जाना है। उसके लिये सत्संग और बोध ग्रहण करना चाहिये, उसे सुनना चाहिये। सब वर्षोंकी भोगावली है, कर्म आते हैं और जाते हैं। कर्माधीन क्रोध कषाय आवे, पर बोध हो तो उसे रोक देता है। यह तो 'पवनसे भटकी कोयल,' अतः अब दो घड़ी बैठ और सत्समागम कर। यह अवसर चला गया तो फिर क्या करेगा? सब बाह्य दृष्टिसे देखता है । वृद्ध, युवान, रोगी, बनिया, ब्राह्मण-सब कुलबुलाहट है। जो देखना चाहिये वह नहीं देखा। वह गुरुगमसे दिखाई देता है। तेरे स्वच्छंदसे करने योग्य नहीं है। गुरु-आज्ञासे काम बन जाता है। भले मनुष्य! लाभ लेनेका तो यह है । व्यवहारमें कमानेके लिये परदेश जाता है और कहता है कि 'यह मैंने कमाया है।' पर कर्म बाँधे ! तो वह यह नहीं । गुरु-आज्ञासे, गुरुगमसे तो किये हुए कर्मबंध कटते हैं, कर्म आनेके द्वार बंद होते हैं। अब कहाँ खड़े रहें? सत्संगकी उपासना करे, बोध सुने तो फिर जाने कि यह मेरा खड़े रहनेका स्थान है। वैसे इस संसारमें तो पाँव रखते पाप है, दृष्टिमें विष है और सिर पर मरण सवार है। बोधसे दृष्टि बदल जाती है। ___"होत आसवा परिसवा, नहि इनमें संदेह; मात्र दृष्टिकी भूल है, भूल गये गत एह." तेरी तो पीलियेकी आँख है अतः सब पीला ही दीखता है। एक दृष्टि तो विकारकी है और एक वैराग्यकी है। यदि तेरे भाव बदल जायें तो अपार कमाई है। इस संसारमें तो माया है और इसमें छिलके कूटने जैसा है। जीवका बुरा करता है मान । मानका तो मानो पद ले बैठा है! अब तो उसे मार दे। "अधमाधम अधिको पतित, सकल जगतमां हुं य; ए निश्चय आव्या विना, साधन करशे शुंय?" लघुता आ जाये तो फिर कैसा काम होता है? यह तो मान ही मानमें रहता है कि इसको कुछ नहीं आता, यह कुछ नहीं जानता, लाइये मैं बात करूँ। इस मानने तो बुरा हाल कर रखा है। सत्संगकी तो बलिहारी है! यह अवसर आया है, चेतने जैसा है। चाबी नहीं है तो ताला कैसे खुलेगा? वह आना चाहिये। उसी प्रकार गुरु बिना ज्ञान नहीं और हो भी नहीं सकता। अन्यत्र भले ही जायें, भटकें-उससे तो ताला भिडेगा, पर खुलेगा नहीं। वह गुरुके पास ही मिलेगा। अब कब लोगे? "अधमाधम अधिको पतित, सकल जगतमां हुंय; ए निश्चय आव्या विना, साधन करशे शुंय?" “प्रभु प्रभु लय लागी नहीं, पड्यो न सद्गुरु पाय; दीठा नहि निज दोष तो, तरिये कोण उपाय?" अतः आवश्यकता है लघुताकी । अनंत कालचक्रसे इस जीवने मानका त्याग नहीं किया है, अब उसे छोड़ दे और पानीसे भी पतला बन जा। अहंकारसे करेगा तो वह गिनतीमें नहीं आयेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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