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________________ उपदेशसंग्रह-१ १८३ मानूँ। संसारमें दुःख, दुःख और दुःख है-कोई सीमा नहीं है। अपार दुःखसे भरा हुआ है। यहाँ आया तो भी दुःख, चलते-फिरते भी दुःख! इतना कह रहा हूँ वह परमार्थके लिये, कुछ स्वार्थ नहीं है, और सुनानेके लिये भी नहीं कह रहा हूँ-मैत्रीभाव, प्रमोद, कारुण्य और मध्यस्थभाव करियेगा। यह लक्ष्य रखें तो बेड़ा पार। ये ऐसे-वैसेके वचन नहीं हैं। एक कृपालुदेव साक्षात् प्रत्यक्ष बिराजमान हैं। यह गया, वह गया, अमुक भाई मर गये ऐसा कहते हैं। किन्तु पहचान नहीं है। “सर्वात्ममां समदृष्टि द्यो, आ वचनने हृदये लखो।" क्या इसको भूल जायेंगे? नहीं नहीं, यह पंक्ति तो याद रखने योग्य है; चिंतामणि है। कहना यह है कि तैयार हो जाओ। अन्य कोई उपाय नहीं है। मिल-मिलकर सब अपने अपने मार्ग पर चले जाते हैं। फिर हो गया। सम्यग्दृष्टि जीव जो भी करता है वह सुलटा करता है। यह कैसे? वह जो कुछ करता है वह सुलटा ही होता है, यह विचारणीय बात है। वह सुलटा कैसे होता है? कोई बतायेगा? १. मुमुक्षु-जिसकी जैसी दृष्टि । जैसा चश्मा पहने वैसा ही दीखता है। नीला चश्मा पहने तो नीला दिखाई देता है। वैसे ही सम्यग्दृष्टि पुरुषोंने सम्यग्दर्शनरूपी चश्मा पहना है, जिससे सम्यक् ही दिखाई देता है। २. मुमुक्षु-सम्यग्दृष्टि पुरुषोंने सबसे भिन्न अपना स्वरूप प्रत्यक्ष देखा। सम्यक् दृष्टिसे आत्माको समभावी देखा । 'सम्मद्दिट्ठी न करेइ पावं' उनको प्रिय-अप्रिय कुछ नहीं रहा। प्रभुश्री-'जो जाना वह नहीं जानूँ, जो नहीं जाना वह जानूँ ।' अतः सुलटा हो गया। सम्यग्दृष्टिको पर्यायदृष्टि नहीं है। ‘पर्यायदृष्टि न दीजिये।' उसे छोड़नी है। १. मुमुक्षु- "होत आसवा परिसवा, नहि इनमें संदेह; मात्र दृष्टिकी भूल है, भूल गये गत एहि." प्रभुश्री-इन वचनोंने तो भेद कर दिखाया है। यह तो अमृत-शक्कर, गुड़ जैसे मीठे होते हैं, वैसा मीठा! दृष्टिकी भूल यह बात बराबर है, पर अब क्या करें? कैसे करें? क्या करना चाहिये? और क्या करना शेष है ? मैंने कृपालुदेवसे कहा था कि "मैं तो सर्वत्र 'भ्रम' देख रहा हूँ।" तब वे बोले, “ब्रह्म-आत्मा देखो।" इसीमें सब मर्म समाया है। ‘आत्मा देखो' इस वचनसे बोध हुआ, वह कैसे हुआ? कहो, जिसे जो कहना हो वह कहो । २. मुमुक्षु-भ्रमरूप जगतको देखनेवाला आत्मा है, अतः पहले उसे देखें । यह सब जाननेवाला, देखनेवाला आत्मा है, अतः उसे देखें। स्वयंको पता न हो तो ज्ञानीकी श्रद्धासे देखता हूँ, जानता हूँ ऐसी भावना करें। ३. मुमुक्षु-भ्रम है वह पर्यायदृष्टि है और आत्मा है वह द्रव्यदृष्टि है। आत्माके उपयोगके लिये द्रव्यदृष्टि उपयोगी है। अन्यत्र न देखकर आत्माकी ओर दृष्टि करना, यह द्रव्यदृष्टि हुई और वह करायी। प्रभुश्री-ज्ञानीने देखा है। योग्यताकी कमी है, वहाँ दृष्टिकी भूल है, वह बदली नहीं है। अन्यकी नहीं, पर ज्ञानीकी दृष्टि। अन्यकी नहीं कही जा सकती। अब क्या करना चाहिये? क्या उपाय है? बहुत बात की-किसीका खंडन नहीं किया। मर्यादा रखकर बात की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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