SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेशसंग्रह-१ १७५ २. मुमुक्षु-परिणाम समय-समयपर बदलते हैं। परिणामके बिना द्रव्य नहीं होता, तथा एक द्रव्यके दो परिणाम नहीं होते। ___ प्रभुश्री-बात तो बड़ी ऊँची, गहन! समझने योग्य है। परिणाम भी बदलते हैं, पर्याय भी पलटती है। सब है तो आत्मा भी है। ३. मुमुक्षु-'दो अक्षरमें मार्ग रहा है' वह क्या है? प्रभुश्री-आप सब सोच-समझकर कहियेगा। बात बहुत अच्छी की, भली की। ४. मुमुक्षु-'सत्'में मार्ग रहा हुआ है। ५. मुमुक्षु-ममत्व छोड़े तो मार्ग मिलता है। २. मुमुक्षु-आत्मामें आत्माका मार्ग रहा हुआ है। १. मुमुक्षु-'बोध' और 'श्रद्धा' में मार्ग रहा हुआ है। ६. मुमुक्षु-सत्पुरुषकी 'आज्ञा' में मार्ग रहा हुआ है। ७. मुमुक्षु-‘सम में मार्ग रहा हुआ है। प्रभुश्री-अनंत कालचक्रसे परिभ्रमण कर रहा है। बैठे बैठे खिलाया पिलाया है। खिलाया है और परिभ्रमण किया है; पर कल्याण नहीं हुआ। सद्गुरुकी शरणसे बात की जा रही है। बैठे बैठे खा-खा किया है और हृष्ट-पुष्ट किया है वह क्या है ? ४. मुमुक्षु-शरीरको पुष्ट किया है। २. मुमुक्षु-अज्ञानको पुष्ट किया है। १. मुमुक्षु-मनको पुष्ट किया है। प्रभुश्री-सब परिभ्रमण विभावसे हुआ है। इस जीवने अनंत कालचक्रसे विचार नहीं किया। ‘कर विचार तो पाम,' पर उस विचार और आत्मभावमें रहे तो, नहीं तो नहीं। 'कर विचार तो पाम' यह काम नहीं हुआ। जिस-किसी दिन इसीसे काम बनेगा। यह आने पर ही छुटकारा है। विचार नहीं किया। ३. मुमुक्षु-इस पत्रमें अंधेको मार्ग बतानेका कहा है, अतः मार्ग बताइये, कारण, कीली (चाबी) तो गुरुके हाथमें है। प्रभुश्री-विचार करे तो किसीको पूछनेकी आवश्यकता नहीं है। अतः विचार करना चाहिये। ता. १८-११-३५ शामको इस जीवका बुरा करनेवाला शत्रु प्रमाद और आलस्य है। धर्म करनेमें शर्म आती है, आलस्य आता है; सच्चे मार्ग पर जाते डर लगता है! करनेको तो इतना भव है। चेतने जैसा है। काल बीत रहा है। फू.... करके अचानक देह छूट जायेगी, देर नहीं लगेगी। कोई रहनेवाला नहीं है। अकेला जायेगा, साथमें कुछ नहीं आयेगा, कोई नहीं आयेगा। इतना भव बचा है। 'पवनसे भटकी कोयल' 'पंखीका मेला' । अतः चेतने जैसा है। महापुरुषोंने इस पर चिंतन किया है और करनेको कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy