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उपदेशसंग्रह - १
१६५
ढूँढना है। अन्य सब संयोग हैं और माया हैं, वे मेरे नहीं हैं । सब सत्पुरुषको अर्पण करना है । है प्रभु! मैं नहीं जानता । सत्पुरुषने जाना वह आत्मा अमूल्य है, उसे किसीने सुना नहीं है । मायाके स्वरूपको याद करते हैं वह सब मिथ्या है । आत्माकी चिंता रखनी चाहिये, सत्संगमें तत्संबंधी जो बात समझनेकी हो उसे समझना चाहिये । शस्त्र है। उससे कर्म दूर होते हैं । बाधक हो उसे हटायें । ऐसा है कुछ ? अब मनुष्य भवमें है कुछ ?
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१. मुमुक्षु - भाव तथा समझ है ।
प्रभुश्री- भाव ही शस्त्र है, लाठी है । सत्संगमें सुनकर भाव करना चाहिये । भाव शुभ हो हैं, अशुभ होते हैं वे नहीं, पर शुद्ध भाव करें । ज्ञानियोंने जैसे भाव किये वैसे भाव करें। भावना करते-करते केवलज्ञान प्राप्त होता है। इस जीवको बोधकी बड़ी कमी है । लूटालूट करने जैसा है । दो घड़ी दिन बचा है । ऐसा अवसर बार बार नहीं मिलेगा। चूकने योग्य नहीं है । जीवको बड़ीसे बड़ी कमी बोधकी है। सुना नहीं है । सुने तो जागृत हो जाय । सवणे नाणे विन्नाणे । सुननेसे देवगति मिलती है, पुण्यबंध होता है । अन्य भव करना मिट जाता है। अधिक क्या कहें ? संक्षेपमें कहना है कि अनंत कालसे समकित नहीं हुआ । जप तपके तो फल मिले । तेरी देरमें देर है । तैयार होकर आये तो बैठे इतनी देर । इधरसे उधर करनेमें रहेगा, तो गाड़ी निकल जायेगी । तैयार हो तो गाड़ी में बैठ सकता है । आत्माका भाव करना योग्य है। पंखीका मेला है। एक-एक जीवके साथ अनंतबार संबंध हो चुका है, कुछ बाकी नहीं रहा है । सब मिला और गया । आत्मा तो है, है और है । परभावमें भटकता है उसको (आत्माको ) एक घर है, वह घर है स्वभाव | वह कहाँ है ?
१. मुमुक्षु - सत्संग में ।
प्रभुश्री - सत्संग बहुत किया, साधु बने, जप तप किये, उसके फल मिले ।
२. मुमुक्षु - उसका स्थान उसमें ही है-उसका उपयोग ।
प्रभुश्री - ज्ञानीका कहा कहता हूँ । समभावमें है। उससे अनेक मोक्ष गये हैं ।
२. मुमुक्षु- समभाव करना है, पर वह होता क्यों नहीं ?
३. मुमुक्षु - काँटा खराब है तब समभाव कैसे हो ?
प्रभुश्री - इसका उत्तर सुगम है । यह सब कहा वह अज्ञान है । अज्ञान मिटकर ज्ञान होता है। बस इतना ही । अब कुछ बाकी है ? कारणके बिना कार्य नहीं होता । किसकी कमी है ?
२. मुमुक्षु - पुरुषार्थकी ।
प्रभुश्री - वह सत्पुरुषार्थ । सत् आत्मा है । वह पुरुषार्थ है । यहाँसे पूर्वमें जायेंगे तो पश्चिममें नहीं जा सकते। अतः 'आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे ।' भाव करो । संसारका सेवन भी करना और मोक्ष भी जाना, दोनों संभव नहीं है । क्या कहा ? छोड़ना पड़ेगा। बात जैसी है वैसी कह दी है। तेरी देरमें देर है । तैयार हो इतनी देर है । अभी यहाँ बैठा है और अच्छे भाव करेगा तो बुरा नहीं होगा। अच्छी दृष्टिसे देखे तो बुरा कैसे हो ? चाबी नहीं है, गुरुगम नहीं है । कमी गुरुगमकी है । यह मनुष्यभव तो काम बना सकता है । यह मिलना दुर्लभ है । वृद्ध, युवान, बहन, भाई - एक मात्र आत्मा । उसको आवश्यकता है समझकी ।
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