SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४६ (२) उपदेशामृत कार्तिक सुदी १०, गुरु, सं. १९८८, ___ ता. १९-११-३१ प्रभुश्री-कर्तव्य है। चेतने जैसा है। किंतु उन सबका कारण एक सत्पुरुषके प्रति दृढ़ श्रद्धा, प्रतीति, रुचि, आस्था है। सुननेका कारण क्या है? मुमुक्षु-यथार्थ बोधके बिना शुद्धि नहीं है। प्रभुश्री-मनुष्यभव दुर्लभ है ऐसा क्यों कहा जाता है? +'ऊठी नाठा बोद्धा' १“समकित साथे सगाई कीधी सपरिवारशुं गाढी ।' (३) कार्तिक सुदी १२, रवि, सं. १९८८, ता. २२-११-३१ प्रभुश्री-अनंतानुबंधीके स्वरूपका भान नहीं है। मुमुक्षु-अनंतानुबंधीके स्वरूपका भान कब होगा? प्रभुश्री-सत्संगमें सद्गुरुके बोधको सरलतासे सुनकर रुचिसे माने तो समझमें आता है। पर मोहनीयकी प्रबलता है। सूक्ष्म मान भीतरसे बुरा कर रहा है। बुद्धिसे मैं समझता हूँ ऐसा मानता है, जिससे सद्गुरुका बोध विरुद्ध भासित होता है और कषायका पोषण होता है। मुमुक्षु-दोष नाश होनेका क्या उपाय? प्रभुश्री-सद्गुरुका बोध । मुमुक्षु-ग्रंथि कब नष्ट होगी? प्रभुश्री-कब नष्ट हुई कहेंगे? वह तो अपने आत्माको जाने तब सब झगड़ा समाप्त होता है। मुमुक्षु-सत्पुरुषके बोधसे अनंतानुबंधी और दर्शनमोहनीय जाता है, पर योग्यताकी कमीसे बोधका परिणमन नहीं होता। प्रभुश्री-वर्षा होने पर भी ढंकी हुई मिट्टी गीली नहीं होती। मुमुक्षु-वर्षाका पानी टंकीमें भरकर रखा जाता है। पानी गिरता है, पर टंकी भरती नहीं-ढक्कन बंद है इसलिये। प्रभुश्री-ठक्कन क्या? घाती पहाड़। मुमुक्षु-घाती पहाड़ क्या? प्रभुश्री-घाती कर्म। + मूर्ख उठकर भाग गये। १ समकितके साथ स्नेह-संबंध किया, मात्र उस समकितके साथ ही नहीं किंतु उसके कुटुंबियोंके साथ अर्थात् शम-संवेग आदिके साथ भी प्रेम संबंध जोड़ा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy