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________________ विचारणा १४५ अतः सत्पुरुषसे यथातथ्य निश्चयकर शुद्धात्मा भिन्न है, यह मानना, बारंबार विचार करना योग्य है जी । ८ [ प्रभुश्री मौन रहते तब स्लेटमें प्रश्नादि लिखते और चर्चा होती, उसकी नोंध ] (१) प्रभुश्री - उजागर क्या है ? मुमुक्षु - संपूर्ण आत्मोपयोगकी जागृति । प्रभुश्री-जागृति कब कहलायेगी ? मुमुक्षु - वीतरागता रहे तब । प्रभुश्री - वीतरागता किसे कहेंगे ? मुमुक्षु - स्वरूपका सच्चा शुद्ध अनुभव हो तब वीतरागता होती है । प्रभुश्री - अनुभवको गुरुमुखसे सुनकर वेदा जाता है सो कैसे ? मुमुक्षु - गुरुमुखसे श्रवण अनुभव होता है वह सच्चा है । प्रभुश्री - क्या जीवने गुरुमुखसे जाना है ? मुमुक्षु - जिसने जाना है उसने जाना है; वह ज्ञानी है । कार्तिक सुदी ९, बुध, सं. १९८८ ता. १८-११-३१ प्रभुश्री - इस जीवने गुरुमुखसे जाना है, माना है, परिणमन हुआ है, अनुभव किया है, फिर भी कुछ रहता है क्या ? मुमुक्षु-बारहवें गुणस्थान तक साधन और सद्गुरुका अवलंबन कहा गया है । प्रभुश्री - श्री महावीरने भी साढ़े बारह वर्ष कर्मक्षय करनेके लिये पुरुषार्थ किया है। मुमुक्षु - अनुभव होनेके बाद भी पुरुषार्थ चाहिये । प्रभुश्री - वासोच्छ्वासमें कर्मक्षय, वह कैसे भावोंसे ? मुमुक्षु - ज्ञानी श्वासोच्छ्वासमें ज्ञानमय भावोंसे अनंत कर्मोंका क्षय करते हैं । प्रभुश्री - ज्ञानीका उपयोग कुछ और ही है ! जिससे श्वासोच्छ्वासमें अनंत कर्मोंका क्षय होता है । मिथ्यात्वीका उपयोग उससे भिन्न प्रकारका है 1 ⭑ Jain Ed90nternational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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