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उपदेशामृत
वास्तवमें दुःखरूप ही है। अतः जैसे बालक अफीमको मिठाई समझकर मुँहमें रख रहा हो तो मातापिता उसे रुलाकर भी अफीम उससे छीन लेते हैं, वैसे ही ज्ञानीपुरुष, यह जीव जब पौद्गलिक सुखकी इच्छा करता है तब उसे उलाहना देकर, उपदेश देकर, परवस्तुकी इच्छा छुड़ा देते हैं, क्योंकि अनादिकालसे जीव पर्यायदृष्टिमें ही फँसा हुआ है जिससे शरीर आदि पर्यायोंमें अहंभाव - ममत्वभाव कर उनमें हर्ष-शोक, राग-द्वेष करता रहता है, इससे जन्ममरणकी परंपरा खड़ी होती है । जन्ममरणकी कारणभूत यह पर्यायदृष्टि त्याज्य है ऐसा ज्ञानीपुरुष पुकार - पुकार कर कह गये हैं । फिर भी यह जीव अनादिके अध्यासके कारण इस कथनको मानता नहीं है, उसको गले उतारता नहीं है । अन्यथा जीव सर्व दुःखोंका नाश करनेवाला सम्यक्त्व अल्प समयमें प्राप्त कर सकता है । सम्यक्त्व प्राप्त करनेका प्रबल कारण सद्गुरुकृपासे द्रव्यदृष्टिका अभ्यास करना है । जब पर्यायदृष्टिको दुःखदायक, जन्ममरणकी हेतुभूत और अनेक पापका मूल जाने और सुखका साधन तथा सत्य वस्तु दिखानेवाली परम हितकारी द्रव्यदृष्टि है उसे सद्गुरु द्वारा समझकर वैसे आत्मपरिणाम प्रवर्तित होते रहें तब आत्माका कल्याण सहज ही हो सकता है । द्रव्यदृष्टिसे आत्मा किसीका पिता नहीं, माता नहीं, पति नहीं, पत्नी नहीं, भाई नहीं; अकेला आया है और अकेला जायेगा । आत्मा बालक नहीं, युवान नहीं, वृद्ध नहीं, जन्मता नहीं, मरता नहीं, निर्धन नहीं, धनवान नहीं, भूखा नहीं, प्यासा नहीं, दुःखी नहीं, सुखी नहीं, देव नहीं, मनुष्य नहीं, स्त्री नहीं, पुरुष नहीं । इस मूल आत्माका स्वरूप सर्व परद्रव्यसे भिन्न, असंगस्वरूप, सद्गुरुकृपासे श्रद्धामें आवे, उसीकी मान्यता हो जाये तो यह भव सफल हो जायेगा । यह शुद्ध स्वरूपकी भावना ही उत्तम तप है, जप है, भक्ति है, ध्यान है और संयम है । अंतरंगमें ऐसी श्रद्धा रखकर, पर्यायदृष्टिसे जो मोह होता है उसे मनसे निकालकर, मेरा कुछ नहीं है ऐसा मानकर, मैं मर गया होता तो जैसे यह सब मेरा न रहता, वैसे ही जीवित होते हुए भी ममत्वको मनसे निकालकर, यथाप्रारब्ध जो व्यवहार करना पड़े वह ऊपर-ऊपरसे निर्मोही दृष्टिसे करना योग्य है जी। विनय, सत्य, शील, भक्ति और सहनशीलता धारण कर समताभावमें रहनेका पुरुषार्थ करना चाहिये जी ।
इस कथनको लक्ष्यमें रखकर प्रत्येक प्रसंगमें, प्रत्येक कार्यमें जागृतिपूर्वक आत्माकी भावना करना योग्य है । ऐसा पुरुषार्थ किया जा सके तो वह अवश्य कल्याणकारी है ।
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कार्तिक वदी २, १९९०, ता. ४-११-३३ एक मुमुक्षुने प्रश्न किया था कि “मनमें संकल्प - विकल्प होते रहते हैं और मनकी चंचलताके कारण संताप होता है, वह कैसे मिटे ?"
यह अवसर ऐसा-वैसा नहीं है, परंतु बहुत आवश्यक और एकांतमें भार देकर कहने योग्य यह बात है, उसे यहाँ कहते हैं । इसे सामान्य न बना डाले, हृदयमें अंकित करने योग्य है ।
संकल्प-विकल्प आते हैं, दुःख देते हैं यह किसे पता लगता है ? जिसे पता लगता है वह संकल्प-विकल्पको जाननेवाला, संकल्प-विकल्पसे भिन्न है । ये हाथ, नाक, आँख, मुँह, कान आदि कुछ नहीं जानते। जो जानता है, वह आत्मा देहादिसे भिन्न है, ऐसा ज्ञानीपुरुषके बोधसे जानकर,
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