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________________ पत्रावलि-२ १२७ पूछते हैं तो वह अपने माता-पिताकी ओर देखता है और उसके माता-पिता बुलवाते हैं वैसा बोलता है। वैसे ही हमने भी कल्याणके मार्गको जाना नहीं है, अतः किसी संतसे पूछा तो उसने स्वयंको जिससे लाभ हुआ हो ऐसा निःशंक मार्ग-परमकृपालुदेवकी भक्तिका मार्ग-हमें बताया, वह मार्ग भूलरहित है, सत्य है। उस मार्गसे हमारा कल्याण है। ऐसी दृढ़ता हमारे मनमें हो ऐसा उपदेश उन्होंने हमें दिया, यह उनका परम उपकार है। उस उपकारीके उपकारको नहीं भूलना चाहिये। उन्हें उपकारीके रूपमें मानना चाहिये। परंतु 'आप ही मुझे तारनेवाले हैं, आपकी जो गति है वही मेरी गति हो, आप ही सब करेंगे, आप ही सब जानते हैं' आदि अपनी मतिकल्पनासे किये गये निर्णय हैं, तथा कल्पना द्वारा कल्याण नहीं होता। अतः यदि हमने उन्हें विश्वास करने योग्य सच्चा पुरुष माना है तो उनके द्वारा बताया गया मार्ग जो परमकृपालुदेवकी भक्ति, परमोत्कृष्ट साधनरूप 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' का मंत्र तथा 'बीस दोहे', 'क्षमापनाका पाठ', 'आत्मसिद्धि', 'छह पदका पत्र' आदि जो-जो आज्ञारूप धर्म बताया है, यदि उसका आराधन करते रहेंगे तो अवश्य कल्याण होगा। उनके द्वारा बताया गया मार्ग हमारे आत्माके लिये कल्याणकारी और सत्य है। उसमें अपनी मतिकल्पनाको जोड़े बिना स्वच्छंदको रोककर प्रवृत्ति करते रहेंगे तो अवश्य मोक्षमार्ग प्राप्तकर मोक्ष पायेंगे। अतः स्थिर चित्तसे बारंबार इस बातका विचारकर 'यह ज्ञानी है, यह ज्ञानी है' ऐसी कल्पना करना छोड़कर 'मैं कुछ नहीं जानता, मात्र सत्पुरुष द्वारा बताया गया साधन ही मुझे ग्रहण करने योग्य है' ऐसा सोचना उचित है जी। अपनी कल्पनासे किसीको ज्ञानी, अज्ञानी कहने में बहुत दोष लगता है। ज्ञानी हो उसे अज्ञानी कह देवें तो मोहनीय कर्मका बंध होता है और अज्ञानीको ज्ञानी कह देवें तो भी मोहनीय कर्मरूप आचरण होता है। अतः सही सुरक्षित मार्ग यही है कि जिस पुरुषको ज्ञानीके रूपमें भजनेकी हमें शिक्षा दी गई है उसीको ज्ञानी मानकर उसीकी भक्ति करनी चाहिये तथा दूसरोंके बारेमें मध्यस्थता रखनी चाहिये। ऐसा सरल निःशंक मार्ग छोड़कर अपनी मतिकल्पनासे प्रवृत्ति करना निर्भय मार्ग नहीं है। इस पर ध्यान देनेकी विनती है। समभावपूर्वक बँधे हुए कर्मोंको भोग लेनेसे छुटकारा होता है। स्वयं द्वारा बाँधे हुए कर्म स्वयंको ही भोगने पड़ते हैं। यदि वैसे कर्म अच्छे न लगते हों तो अब वैसे कर्म न बँधे इसका विशेष ध्यान रखना चाहिये । अर्थात् रागद्वेषका त्यागकर समभावपूर्वक उन कर्मोंको भोग लेनेसे नये कर्म नहीं बँधते । अतः परमकृपालुदेवकी भक्तिमें वृत्ति रखकर जो प्रवृत्ति करनी ही पड़ती हो उसमें समय लगावें, शेष सब समय स्मरण, भजन, भक्ति, वाचन, चिंतनमें बिताना योग्य है जी। व्यर्थ संकल्प-विकल्प करनेसे कुछ कल्याण नहीं होता। अषाढ़ वदी ३, सोम, १९८९ ज्ञानीपुरुषोंने ऐसा निष्कर्ष निकाला है कि इस संसारमें किसी स्थान पर सुख नहीं है, समस्त लोक दुःखसे भरा हुआ है। तो फिर ऐसे इस संसारमें सुखकी इच्छा रखना रेतको पीलकर तेल निकालने जैसा है। ज्ञानीपुरुषोंने ऐसा देखा है, जाना है कि जीव जो-जो सुखकी इच्छा करता है वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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