SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६ उपदेशामृत परमगुरु' का जाप और वही भावना रखनी उत्तम है। मुनिदेव मोहनलालजी आते, पर नहीं आ सके इसमें लाभ है। ये आये और उनसे मिले, तथा हमें याद करना और बुलाना यह सब भूलकर, एक ज्ञानदर्शनचारित्रकी एकतारूप मेरा स्वरूप है, हे भगवान! मुझे उसका पता नहीं है, परंतु ज्ञानीपुरुषोंने देखा है वैसा मेरा स्वरूप है, उसका मुझे भान हो । यही आनंदस्वरूप है। अन्य सब पाँच इंद्रियोंसे जो सुखदुःखरूप लगता है, वह सब मिथ्या है, क्षणिक है, टिकनेवाला नहीं है, मात्र नाटकके खेल जैसा है। हे प्रभु! अब मैं उसका विश्वास न करूँ और मेरा जो शुद्ध चैतन्य स्वरूप शाश्वत, अचल और निर्मल है, वह मुझे प्राप्त हो । उसकी प्राप्तिके लिये सद्गुरुका बताया मंत्र संतके योगसे इस भवमें मुझे प्राप्त हुआ है, उसका माहात्म्य क्षणभर भी भूला न जाय और जब तक जीभने बोलना बंद नहीं किया, आँखने देखना बंद नहीं किया, कानने सुनना बंद नहीं किया, स्पर्शसे अच्छा बुरा लगना बंद नहीं हुआ, तब तक हे प्रभु! इस मंत्रका रटन जीभके अग्रभाग पर रहे, कानमें इसी मंत्रकी झंकार रहे, अंगुलि इसी मंत्रको गिननेमें रुकी रहे, ऐसी भावना और पुरुषार्थ कर्तव्य है। सर्व प्रकारकी चिंताओंका त्यागकर मात्र परमात्मस्वरूपके चिंतनमें एकाग्रता करें। चित्त इधरउधर जाये तो उसे समझाकर आत्महितमें जोड़ें। "वचनामृत वीतरागनां, परम शांत रस मूळ; औषध जे भवरोगनां, कायरने प्रतिकूळ." उन राजवैद-“सद्गुरु वैद्य सुजाण" की औषधि 'विचार-ध्यान' तथा 'आज्ञा'में प्रवृत्ति प्रयत्नपूर्वक विशेष कीजियेगा। चैत्र सुदी ९, सं. १९८३ ता. १०-४-२७ बहुत समागमकी आवश्यकता है। कई बातें सुननेके बाद श्रवण, मनन, निदिध्यासनके अनुक्रमसे समझमें आने योग्य है। योग्यताकी जितनी कमी होगी वह पूरी करनी पड़ेगी, परंतु बड़ी कमी बोधकी है। बोधकी आवश्यकता है। अतः अवकाश निकालकर समागममें विशेष बोधका श्रवण हो वैसा प्रथम कर्तव्य है जी। ___ महत् पुण्यके योगसे मनुष्यभव मिला है। उसमें भी महत् महत् पुण्यके योगसे सर्वोत्कृष्ट वस्तुकी जिज्ञासा जागृत होती है। किसी अपूर्व पुण्यके योगसे इस कालमें सत्पुरुषसे भेंट हो पाती है और प्रत्यक्ष पुरुषकी पहचान होना तो किसी अपूर्व संस्कार और अत्यंत पुण्यके पुंजका संचय हुआ हो तभी संभव है। ऐसे योगमें सत्पुरुषकी वाणीका श्रवण और उसका यथायोग्य विचार कर आत्महित साधनेके विरले संयोग तो इस कालमें कभी कभी ही बनते हैं । ऐसा दुर्लभ विकटकार्य भी सत्पुरुषके आश्रयसे इस कालमें भी सिद्ध हो सकता है। किन्तु जो वस्तु हमें खरीदनी हो उस वस्तुकी जितनी अप्राप्यता होती है, उसीके अनुसार उसका मूल्य भी विशेष होता है। जौहरीकी दुकानसे हीरे खरीदने हों और शाकभाजीवालेसे शाक खरीदना हो तो उस वस्तुके प्रमाणमें उसका मूल्य देना पड़ता है। कितने ही वर्षों की कमाई खाली होने पर हीरेकी प्राप्ति होती है। वैसे ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy