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पत्रावलि-२
ता. २४-१-२६ जिन्हें आप्तपुरुष अर्थात् आत्मस्वरूप प्राप्त पुरुषके बोधरूपी लाठीका प्रहार हुआ है, वे जीव तो क्षण-क्षण अपने दोष देखकर, अपनेको अधमाधम मानकर, अपनेमें विद्यमान दोषोंको पक्षपातरहित दृष्टिसे देखते हैं, और अपने राई जैसे दोषको मेरु जितना मानकर उन्हें निर्मूल करनेका ही निरंतर पुरुषार्थ करते हैं।
दोष तो अनंत प्रकारके हैं। उन सब दोषोंका बीजभूत मूल दोष स्वच्छंद, उद्धतपना है। उसके अंगभूत अर्थात् स्वच्छंदके अंगभूत अनेक दोष हैं, जैसे कि 'मैं जानता हूँ, मैं समझता हूँ' और उसके आधार पर अपनी कल्पनानुसार परमार्थका निर्णय करना, अपनी कल्पनाके निर्णयको सच्चा मानना, सत्पुरुषकी सहमतिके बिना परमार्थमार्गकी स्वयं कल्पना करना और उस कल्पनानुसार अन्यको भी समझाना इत्यादि तथा इंद्रियादि विषयोंकी अति लोलुपता, क्रोध मान मायाकी मधुरता इत्यादि दोष आत्मासे हटाकर, अपनी समझको बदलकर सत्पुरुषकी समझके अनुसार अपनी समझ बनायें। इसके बिना त्रिकालमें भी कल्याणका, मोक्षका मार्ग नहीं है।
उपरोक्त दोष आपको, हमको, सभीको विचार-विचारकर आत्मासे निकालने हैं। वे दोष जाने पर ही यथार्थ मुमुक्षुता प्रकट होगी।
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ता.४-२-२७ सभी काम अच्छे होंगे। चिंता करने जैसा कुछ नहीं है। 'फिकरका फाँका भरा, उसका नाम फकीर।'
"नहि बनवानुं नहि बने, बनवं व्यर्थ न थाय;
कां ए औषध न पीजिये? जेथी चिंता जाय." "गई वस्तु शोचे नहीं, आगम वांछा नाहि;
वर्तमान वर्ते सदा, सो ज्ञानी जगमांहि." -यों प्रवृत्ति करनी चाहिये।
"बीती ताहि विसार दे, आगेकी सुध लेय,
जो बनी आवे सहजमें, ताहीमें चित्त देय." मनुष्यभव दुर्लभ है। चाहे रोगी, गरीब, अशक्त, वृद्ध चाहे जैसा हो पर मनुष्यभव और उसमें किसी संतकी कृपासे प्राप्त सच्चे अनुभवी पुरुषके मंत्रका लाभ तो अपूर्व है। अतः ‘सहजात्मस्वरूप
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