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________________ [ १५ ] फूल गया और उसकी मृत्यु हो गयी । वरतेज गाँवके भावसारकी पुत्री नाथीबाईके साथ उनका दूसरा विवाह हुआ । यों सांसारिक सुखमें सत्ताईस वर्ष तककी उम्र व्यतीत हुई । उदारवृत्ति होनेसे उनसे उधार पैसे लेने अनेक लोग आते । और उस समयके गाँवके लोगोंकी प्रामाणिकता और सरलताके अनुसार अधिकांश लोग स्वतः ही ब्याजसहित रुपये वापस लौटा जाते या अनाज, गुड़ आदि वस्तुएँ देकर ऋण उतार देते । किन्तु उगाही कर लोगोंको कटु शब्दोंसे सताकर पैसेके लिए किसीसे वैर बाँधना या सरकारमें फरियाद करना, जब्ती लाकर पैसा वसूल करना इत्यादि उग्र उपायोंसे इस युवकका हृदय काँप जाता था । कुछ ग्राहक जो ऐसे उपायोंके बिना वशमें नहीं होते थे, उन्हें गाँव अन्य गृहस्थोंके द्वारा शर्ममें डालकर, समझाकर वे अपना काम निकाल लेते थे । फिर भी उधारी बहुत बढ़ जानेसे और दिनोंदिन लोगोंकी वृत्तियोंमें परिवर्तन होनेके कारण पैसा देकर वैर बाँधने जैसे इस ऋण देनेके व्यापारसे वे उकता गये थे । सं.१९३७ में उन्हें पाण्डु रोग हुआ । अनेक प्रकारके उपचार करनेपर भी उनकी व्याधि बढ़ती गयी । एक वर्षमें तो शरीर बहुत क्षीण हो गया । एक वैद्यने पर्पटीकी मात्रा खिलायी और कहा कि आयुष्य होगा और बच गये तो शरीरका गठन सुदृढ़ हो जायेगा । परंतु उससे भी यह बीमारी दूर 1 हुई | धोका एक प्रसिद्ध वैद्य था । उसके विषयमें यह कहावत प्रसिद्ध थी कि जिसका बचना निश्चित हो उसीका वह इलाज करता है । अतः उस वैद्यको दिखानेके लिये स्वयं धोलका गये । वैद्य परीक्षा कर इलाज करनेसे इन्कार कर दिया । इसलिये उनके मनमें यह निश्चित हो गया कि अब यह शरीर नहीं रहेगा । अतः धोलकासे बतासे लेकर वटामण आये । गाँवमें जो भी खबर पूछने आता उसे पाँच-पाँच बतासे देकर उनके प्रति स्वयं द्वारा हुए दोषोंकी अंतिम क्षमायाचना कर खमतखामणा* करने लगे । गाँव तथा अन्य गाँवके सभी पहचानके लोगोंसे, सगे-संबंधियोंसे क्षमायाचना करनेके बाद उन्हें विचार आया कि जैसे गरीब लोग मजदूरी करके दिन व्यतीत करते हैं, उसी प्रकारका हमारा कुटुंब भी है। पूर्व भवमें कुछ धर्मकी आराधना की होगी जिसके फलस्वरूप धन, वैभव, प्रतिष्ठा इस कुटुम्बकी विशेष दिखायी देती है । किन्तु पूर्वकी कमाई तो खर्च हो जायेगी । भविष्यमें सुखकी इच्छा हो तो इस भवमें धर्मकी आराधना कर लेनी चाहिए । इस विचारने अंतमें ऐसा स्वरूप लिया कि यदि मेरी यह बीमारी मिट गई तो मैं संसारका त्याग कर साधु बन जाऊँगा। उनकी व्यवहारकुशल बुद्धिने सुझाया कि साधु बनना हो तो साथमें कोई उपदेशव्याख्यान देनेमें प्रवीण साधु भी होना चाहिए। अतः अपने गाँवके और घरके पड़ौसी मित्र जैसे देवकरणजी नामक भावसार जो तीक्ष्ण बुद्धिवाले थे, वे भी साथमें साधु हो जायें तो बहुत अच्छा रहे, यों विचार कर, उपाश्रयमें दोनों नित्य सामायिक करने जाते थे उस समय उन्होंने देवकरणजीसे पूछा कि मैं साधु बनूँ तो तुम मेरे शिष्य बनोगे ? देवकरणजीको लगा कि ऐसे सुखी कुटुम्बका और इकलौता पुत्र संसार त्याग करे यह तो असम्भव ही है, यह सोचकर उन्होंने कह दिया कि 'हाँ, यदि तुम संसार त्याग करोगे तो मैं भी तुम्हारे साथ त्यागी बनकर तुम्हारा शिष्य बन जाऊँगा ।' देवकरणजीके सिर पर कर्ज था उसे चुका देना स्वयं स्वीकार किया, अतः देवकरणजीको सच्चा लगा और साथमें आनन्द भी हुआ । * क्षमापना (क्षमा करना-कराना) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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