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________________ १०१ पत्रावलि-१ मनके परिणाम हैं, वही हानि है और वही मृत्यु है। आत्मा सर्व साता-असाताका द्रष्टा है। १५६ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास अषाढ़ सुदी ७,१९९० ता.८-७-३४ आपने आत्मसिद्धि कण्ठस्थ की है उसमें चौदह पूर्वका सार आ जाता है। इसमें किसीको विषम लगे वैसा नहीं है। सबके साथ शांतभावसे हिल मिलकर रहें। श्री आत्मसिद्धिमें आत्माका गुणगान है। उसमें किसी धर्मकी निंदा नहीं है। सभी धर्मोंको माननेवालोंके लिये विचारणीय है। हमें भी यदि आत्माकी पहचान करनी हो तो उसका बारंबार चिंतन करना चाहिये । चौदह पूर्वका सार उसमें है। हमें अपनी योग्यतानुसार विचार करनेसे बहुत लाभ हो सकता है। उसमें जो गहन मर्म भरा है वह तो ज्ञानीगम्य है, किसी सत्पुरुषके समागममें सुनकर मान्य करने योग्य है। पर जितना अर्थ हमारी समझमें आ सकें उतना समझनेका पुरुषार्थ करना चाहिये । इसलिये चाहे जो धर्म माननेवाला हो उसके साथ आत्मसिद्धिके विषयमें बातचीत हो और वह सुने तो उसे रुचि हो सकती है। बड़े बड़े लोगोंको मान्य करनी पड़े ऐसी बातें आत्मसिद्धिमें हैं। इससे अधिक मैं जानता हूँ ऐसा कहनेवाला कुछ भी नहीं जानता। उसमें भूल ढूँढ़नेवाला स्वयं धोखा खाता है। श्री आत्मसिद्धिको यथार्थ समझनेवाले तो कोई विरले ज्ञानीपुरुष हैं। किन्तु गुजराती भाषामें होनेसे छोटे बच्चे, स्त्री, विद्वान चाहे जो पढ़ सकते हैं, कण्ठस्थ कर सकते हैं, नित्य पाठ कर सकते हैं और यथाशक्ति समझ सकते हैं। और समझमें न भी आये तो भी वे ज्ञानीपुरुषके शब्द कानमें पड़नेसे भी जीवको पुण्यबंध होता है, ऐसा इसका प्रभाव है। अतः अन्य बातोंमें समय न खोकर घर, बाहर, काम पर या अवकाशमें जहाँ हो वहाँ आत्मसिद्धिकी कोई कोई गाथा बोलते रहनेकी आदत डाली हो तो उस पर विचार करनेका प्रसंग आता है और विशेष समझमें आता रहता है, तथा आत्माका माहात्म्य प्रगट होता है। अन्य कुछ न हो सके तो आत्मसिद्धिकी गाथाओंमें मनको रोकें, यह हितकारी है। थकें नहीं, सौ बार हजार बार एक ही गाथा बोली जाय तो भी आपत्ति नहीं, लाख बार बोली जाय तो भी कम है। उसमें कथित आत्मा मुझे मान्य है, ज्ञानी पुरुषने उसमें प्रत्यक्ष आत्मा दिखाया है, ऐसी श्रद्धा रख, कमर कसकर पुरुषार्थ करना चाहिये। अधिक क्या लिखें? पुरुषार्थ किये बिना कुछ भी नहीं होता। अतः उकताये नहीं, भूले वहींसे फिर गिनें । ॐ शांतिः शांतिः शांतिः १५७ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास अषाढ़ सुदी १४, बुध, १९९० ता.१५-७-३४ कालका भरोसा नहीं। प्राण लिये या लेगा यों हो रहा है। संसार पंखीके मेले जैसा है, मेहमान जैसा-स्वप्न जैसा है। तीर्थंकरके वचन ऐसे हैं, संपूर्ण लोक त्रिविध तापसे जल रहा है, अज्ञानसे सद्विवेक पाना दुर्लभ है। यह यथातथ्य है। समता और धैर्य कर्तव्य है। यही एक भाव, दृष्टि करनी है। जैसा सुख-दुःख बाँधा होगा, वैसा भोगना पड़ेगा। इसमें किसीका वश नहीं चल सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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