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________________ पत्रावलि-१ सुखी और अच्छे बननेकी इस शिक्षाको लक्ष्यमें रखकर तदनुसार व्यवहार करनेकी आदत डालनी चाहिये। आप मुमुक्षु हैं, अतः दोनोंको समझने, ग्रहण करने योग्य यह शिक्षा लिखी है, उसे दोनों मिलकर पढ़ें। इस पत्रको पढ़ें, फैंक न दें। शिक्षाकी बात है। ___ जैसे भी हो एकता रखें। नींबूके पानीकी भाँति सबके साथ मिलकर रहें। मैत्री भावना, करुणा भावना, प्रमोद भावना और मध्यस्थ भावना इन चार भावनाओंके विषयमें वाचन करें। 'विनय शत्रुको भी वश करता है। अतः सबका विनय करें, ऐसी आदत डालें। जैसे भी हो किसीके भी वचनको सहन करें। क्रोध आये तो क्षमा धारण करें। किसीको क्रोध आये ऐसा न करें। किसीको क्रोध आया है ऐसा लगे तो मधुर वचन और नम्रतासे उसका हित हो, उसको अच्छा लगे ऐसा मैत्रीभाव रखें। बड़े लोगोंके सम्पर्कसे हमें बहुत लाभ होता है। हिंमत रखें। आपने अपने बड़े भाईको पत्र लिखा सो जाना, पर उनकी अवगणना न करें। तुच्छ न गिनें । उनकी जो समझ है उसमें हमें विषमभाव नहीं करना चाहिये। ___ हमसे कोई मिलता हो तो उसे धर्ममें जोड़ें। हमें उसकी बातमें नहीं बह जाना चाहिये, उसकी बातोंसे प्रसन्न नहीं होना चाहिये। हम उसकी बातोंमें आ जायें तो दुर्गति होती है। कृपालुदेवकी पुस्तक पढ़नेका योग मिले तो उसमें अवकाशका समय बितायें, पर अन्य काममें गप्प मारनेमें समय न खोयें । हिम्मत रखकर, न घबराते हुए, शिक्षाकी समझमें उद्यमी बनेंगे तो सब सीख सकेंगे और अच्छे माने जायेंगे। अधिक क्या लिखें? "ज्ञान गरीबी गुरु वचन, नरम वचन निर्दोष; इनकू कभी न छांडिये, श्रद्धा शील संतोष." १५४ अठवा लाइन्स, सूरत, ता.९-६-३४ "विद्युत लक्ष्मी प्रभुता पतंग, आयुष्य ते तो जळना तरंग, पुरंदरी चाप अनंग रंग, शुं राचीए त्यां क्षणनो प्रसंग?" “सर्वज्ञनो धर्म सुशर्ण जाणी, आराध्य आराध्य प्रभाव आणी, अनाथ एकांत सनाथ थाशे, एना विना कोई न बाह्य सहाशे."-श्रीमद् राजचंद्र "द्रव्यदृष्टिसें वस्तु स्थिर, पर्याय अथिर निहार; ऊपजत विणसत देखके, हर्ष विषाद निवार." १“निज धाम चंचळ, वित्त चंचळ, चित्त चंचळ सर्वथी, हित मित्र ने सुकलत्र चंचळ, जाय शुं मुखथी कथी? स्थिर एक सद्गुरुदेव छो, ए टेक अंतर आदरूं, सहजात्मरूपी सेव्य गुरुने वंदना विधिए करूं." "नहि बनवानुं नहीं बने, बनवं व्यर्थ न थाय, कां ए औषध न पीजिये, जेथी चिंता जाय?" १. अर्थ-अपना घर, वित्त, चित्त, हितकारी मित्र, सुशील स्त्री सभी चंचल है। अधिक क्या कहूँ? एक सद्गुरुदेव ही स्थिर है यह निश्चय हृदयमें धारण करूँ। ऐसे सहजात्मरूपी सेव्य गुरुको विधिपूर्वक वंदना करूँ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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