SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १३ ] श्रीमद् लघुराज स्वामी (प्रभुश्रीजी) का जीवनचरित्र 30 'मन वचन शरीरे पुण्य सुधा प्रकाशे, त्रिभुवन पण जेना उपकारे विकाशे, परगुण- परमाणु गिरि जेवा गणीजे, निज उर विकसावे संत ते केटला छे ? जिन्होंने सम्यक्प्रकारसे आत्मस्वरूपका अनुभव किया है, जिनकी सर्वत्र आत्मदृष्टि है, उन संत महात्माकी मन-वचन-कायाकी प्रत्येक चेष्टाके अद्भुत माहात्म्यसे यह संपूर्ण विश्व शोभायमान है । उनके लिये शत्रु भी मित्रके समान हैं, वे अपने अद्भुत प्रभावसे अवगुणीको भी उत्तमताकी ओर प्रेरित करते हैं और प्रत्येक प्राणीको अपने आत्मानन्दसे उज्वल कर आत्मशक्तिका विकास करते हैं, ऐसे अनन्त उपकारी महात्माको अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार ! ✰✰ १ बहुत वर्षों पहले वैष्णव सम्प्रदायका एक भावसार कुटुम्ब दुष्कालके कारण मध्य गुजरातमेंसे पश्चिमकी ओर भाल प्रदेशके एक गाँवमें जाकर बस गया था। उस गाँवका नाम वटामण है । मात्र दाँतिये और टोकरे ही उसकी पूँजी थी। मजदूरी करके गुजर करते थे, मजदूरीमें मिलनेवाले गेहूँ आदि अनाजकी बचत थोड़े वर्षोंमें हुई, इतनेमें फिर दुष्काल पड़ गया । उस समय रेलकी सुविधा नहीं थी। मात्र स्थानीय अनाजसे सबको निभाना पड़ता था, जिससे अनाज बहुत महँगा हो गया । उस समय इस भावसार कुटुम्बको अपने अनाजके संग्रहसे अच्छी रकम प्राप्त हुई और गाँवमें धनवान माने जानेवाले कुटुम्बोंमें उनकी गिनती होने लगी । अब मजदूरीका धंधा छोड़कर वे लेनदेनका धंधा करने लगे और धीरे धीरे जमीन-जायदाद भी प्राप्त कर ली । खंभात स्थानकवासी सम्प्रदायके साधु उस गाँवमें बार बार आते-जाते थे । उनके समागमसे उस कुटुम्ब-परम्परामें स्थानकवासी जैनधर्मकी कुलश्रद्धा हुई । विक्रमकी बीसवीं सदीके प्रारंभमें उस कुटुंबमें कृष्णदास गोपालजी नामक व्यवहारकुशल और गाँवमें अग्रगण्य पुरुष हुए। उन्होंने चार ब्याह किये फिर भी एक भी संतान नहीं हुई । उनकी आयुके अंतिम वर्षमें कुशला ( कसली ) बाईको गर्भ रहा । उसी अरसेमें कॉलेराके रोगका प्रारंभ हुआ था । कृष्णदास घोड़ीपर बैठकर उगाही करने गये थे। रास्तेमें कॉलेरासे उल्टी हुई और उन्हें घर लाया गया, पर उस बीमारीसे वे बच न पाये । Jain Education International १. अर्थ - जिसके मन, वचन और कायामें पुण्यरूपी अमृत भरा हुआ है; जो तीनों लोकको उपकारकी परंपरासे भर देता है; दूसरोंके परमाणु जैसे गुण भी जो पर्वत समान गिनकर सदा अपने हृदयमें विकसित करते हैं ऐसे संत दुनियामें कितने हैं? * इनके उत्तराधिकारियोंका कहना है कि इनकी आर्थिक स्थिति अच्छी और सम्पन्न थी 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy