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उपदेशामृत
शांति-समाधिमें समभावपूर्वक समय बितानेकी विनती है जी । स्व. रवजीभाई अब कहाँ है ? परतंत्रतासे जीवने बहुत सहन किया है । पर समझपूर्वक समभावसे वियोग सहन हो तो वह भी परम कल्याणका कारण है ।
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"बीती ताहि बिसार दे, आगेकी सुध ले । जो बनी आवे सहजमें, ताहिमें चित्त दे ॥ गई वस्तु शोचे नहीं, आगम वांछा नाहीं । वर्तमान वर्ते सदा, सो ज्ञानी जगमांही ॥ "
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ॐ शांतिः शांतिः शांतिः
श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे. अगास ता. २५-२-१९३१
" जो बाहरी हैं वस्तुएँ वे हैं नहीं मेरी कहीं, उस भाँति हो सकता नहीं, उनका कभी मैं भी नहीं । यों समझ बाह्याडंबरोंको छोड़ निश्चित रूपसे, हे भद्र! हो जा स्वस्थ तू बच जायगा भवकूपसे ।। "
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दासभावकी भक्तिसे दीन बालककी सद्गुरुसे अर्ज है कि गुरुभावका वेदन नहीं होता और दीन दासभावसे भक्तिपूर्वक उनकी आज्ञासे प्रवृत्ति करनेकी इच्छा, भाव रहते हैं । उस आज्ञाका पालन नहीं होता उसका खेद है और तब तक अंतरंगसे गुरुभाव माननेकी इच्छा नहीं है । जब तक उस दशाको प्राप्त करनेकी इच्छा रहती है, तब तक उसे, जो योग्यता नहीं है उसे योग्यता कैसे कही जा सकती है? इसीलिये ज्ञानीने जैसा है वैसा यथातथ्य जाना है । वह दशा देवाधिदेव परमकृपालुदेवकी है, यह निःशंक है। उनकी भक्ति करता हूँ । उनके गुणगान मुझे तथा अन्य मुमुक्षु आत्मार्थी भाविक वो भी भक्तिभावपूर्वक करना योग्य है तथा नमस्कार करने योग्य है । अपनी कल्पनासे छाछको दूध कहना तो अपना स्वच्छंद कहलाता है । उन सद्गुरुकी भक्तिमें सर्व सत्य आ जाता है । सच्ची सजीवनरूप अग्निसे सर्व पाप नष्ट होते हैं । उन सत्के चरणों में सब समा ही जाता है ।
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"सर्व जीव छे सिद्ध सम, जे समजे ते थाय । सद्गुरु आज्ञा, जिनदशा, निमित्त कारण मांय ।। " -श्री आत्मसिद्धि गाथा १३५
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः
श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे. अगास ता. ३०-३-३१, चैत्र सुद ११, सोम, १९८७
"ज्ञान विना क्रिया अवगाहे, क्रिया विना मोक्षपद चाहे । मोक्ष विना कहे अम सुखिया, सो जानो मूढनमें मुखिया ॥" " वीतराग शासन विषे, वीतरागता होय । जहाँ कषायकी पोषणा, कषाय-शासन सोय || "
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