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________________ पत्रावलि-१ ७५ ऐसा भय नहीं लगता । अथवा तो जीव शुद्धाचरण, सद्वर्तन, जप-तप-दानादि क्रियारूप अच्छे कर्म अपनी कल्पनासे करता है, परंतु वह सब बंधनका कारण हो जाता है। अपने स्वच्छंदको रोककर किसी सत्संग-समागमके योगसे जो कुछ दानादि क्रिया करता है वह आत्महितार्थ है। जीव अपनी इच्छासे करता रहता है यह बड़ी भूल है। लाभ-अलाभके बारेमें जीव विचार नहीं करता। प्राणी मात्र सुखको चाहता है, पर सुख कैसे मिले यह यदि सत्संगमें समझकर करे तो हित होता है। जीव तो ऐसा मानता है कि 'मैं समझता हूँ, मैं करता हूँ वह ठीक है' और कुछ सूक्ष्म मान कषायके कारण धर्मके नाम पर करता है और भ्रांतिमें रहता है। जीवने परवशतासे तिर्यंच आदिके अनेक दुःख भोगे हैं। देहकी सँभाल, सुखके लिये जीवने अमूल्य सत्संगको हानि पहुँचाई है। देहकी शाताके लिये, साताशील बनकर औषधि आदिसे अनेक उपचार किये हैं। किन्तु जो बंधा हुआ है उसमेंसे कुछ भी कम नहीं होता और भोगे बिना छुटकारा नहीं है। यदि यह शेष मनुष्यभव आत्मार्थके लिये बिताये, सत्संगके योगमें आयुष्य जाय तो कितने अधिक लाभका कारण है, इस पर कुछ विचार ही नहीं किया । कलियुग महा विषम काल है। इसमें जो जो आत्माके हितके लिये उपयोगी हो उसकी विशेष सावधानी रखने जैसी है जी। आप समझदार हैं, उत्तम जीवात्मा हैं, पवित्र हैं। जीवात्मा कर्मोंके आधीन रहकर, मनुष्यभव प्राप्त कर बँधे हुए कर्मोंसे छूटनेका विचार न करे तो फिर अन्य भव कैसे होंगे? इस पर विचारकर यहाँ यथाशक्य समता, क्षमा, धैर्य, सहनशीलता कर्तव्य है। मेरा साक्षात् आत्मा है ऐसा जानकर, विचारकर, चित्तको प्रसन्नता हो ऐसे उद्गार-अंतरंग भाव अच्छे करें; परंतु बाह्य अच्छा दिखानेके लिये भाव करना योग्य नहीं है। अब पतिके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये इस पर विचार करें। अपने पतिको परमेश्वर बुद्धिसे सोचें । उनका विनय, वैयावच्च (सेवा) कर उनके चित्तको प्रसन्नता हो ऐसे वचनोंसे संतोष दें और उनके चित्तमें कुछ भी खेद न हो ऐसा करें। उन्हें किसी प्रकारका खेद हो तो उसमें सहभागी होनेका प्रयत्न करें। यह महा तपका कारण है। इस जीवको खेदका कारण छोड़ देना चाहिये । 'पक्षीका मेला', 'वन वनकी लकडी' कोई किसीका नहीं है। तथा अभी जो कुछ बन सकता है और जो स्वयंको समझने योग्य है वह तो एक आत्मार्थ है। उसके सिवाय अन्य नहीं करना है। अधिक क्या लिखू? कुछ समझमें नहीं आता। फिर बाह्य दृष्टिसे जो जो दिखाई देता है वह आत्मा नहीं है, और आत्माको जाननेकी तो विशेष आवश्यकता है। इसमें जीवकी क्या कमी है? यह विचारणीय है । वह यह है कि बोधकी कमी है। शरीरके सुखकी इच्छासे, अपनी कल्पनाके कारण जीव सत्संग प्राप्त नहीं कर सका। आयुष्यका भरोसा नहीं है। देह क्षणभंगुर है। पूरा शरीर रोगसे ही भरा हुआ है। उसमें क्या कहा जाय? पुरुषार्थ कर्तव्य है। उसमें विघ्नकारक प्रमाद, आलस्य और अपनी कल्पनाके कारण सत्संग नहीं कर पाया यह है। यह मनुष्यभव प्राप्तकर एक सद्गुरुको पहचानकर उनकी आज्ञाकी भावनासे काल व्यतीत करनेकी आवश्यकता है। ‘आणाए धम्मो आणाए तवो'। श्री तीर्थंकरादिने जीवका उद्धार होनेके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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