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________________ ७४ उपदेशामृत हानि होनेवाली नहीं है। उससे आत्मा निःशंक भिन्न द्रष्टा-साक्षी है जी। सद्गुरुने उसे देखा है। उस पर मुझे श्रद्धा है, मैं मानता हूँ, भवोभव यही मान्यता रहो! *** ११८ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास फाल्गुन वदी ८, १९८६ इस शरीरके संबंधमें दिन-दिन वृद्धावस्थाके कारण कई कई रंग बदलते हैं। लगता है जैसे अब देह छूट जायेगी। किन्तु देहका संबंध पूर्ण होने तक-जब तक वृद्धावस्थारूपी शिकंजेमें रहना पड़ेगा तब तक-पूर्वबद्ध वेदनाको भोगते हुए काल बीतेगा। पर परमकृपालु देवाधिदेवकी शरणसे, उन सद्गुरुकी कृपासे उनकी शरणमें, उनकी आज्ञामें, उनके बोधमें, उनकी स्मृतिमें काल बीत रहा है, भाव रहते हैं जिससे संतोष मानकर काल व्यतीत कर रहा हूँ। घबराहट, आकुलता, वृद्धावस्थाकी बाँधी हुई वेदनाका गुरुकृपासे यथाशक्ति समभावसे वेदन हो रहा है। ११९ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, स्टे.अगास वैशाख सुदी ७, मंगल, १९८६ जीव अनंत कालचक्रसे मिथ्या अज्ञानसे भ्रमित होकर भूल करता आया है। मैं कौन हूँ? कहाँसे आया हूँ ? इसका भान नहीं है। वैसे ही आत्माका भान भूलकर जीव मोहनीय कर्मके उदयसे विषय-कषाय और रागद्वेषमें सुख मानता है, यह सब मिथ्या है ऐसा जीवने जाना नहीं है और बंधनसे मुक्त हुआ नहीं है। अज्ञानके कारण अनंत काल बीत जाने पर भी अभी तक जीवने अपनी कल्पनासे सुखदुःख मानकर, धर्म-अधर्मको अपने स्वच्छंदसे समझकर परिभ्रमणका कारण सेवन किया है, सेवन कर रहा है और सेवन करेगा ऐसा तीर्थंकरादिने कहा है। __ मनुष्यभव दुर्लभ है। इसमें भी सम्यक्त्वकी प्राप्ति दुर्लभसे दुर्लभ है। पहले तो जीवको सद्वर्तन-सदाचारका सेवन करना चाहिये और यथाशक्य रागद्वेष कम करने चाहिये। इसका कारण सर्व प्राणियोंके प्रति विनयी होना है। अपनेमें अनंत दोष हैं, ये जीवने अभी तक देखे नहीं है; और पराये दोषोंकी ओर दृष्टि दौड़ती है, जिससे वे ही दोष अपनेमें आ जाते हैं ऐसा जीवने जाना नहीं है। यदि दोष देखना छोड़ गुणोंको देखें तो उसे भी गुणकी प्राप्ति होती है। ऐसा नहीं होनेका निमित्त कारण असत्संग है। यद्यपि जीव सुखदुःख, साता-असाता पराधीनतासे भोगता आया है। और बाँधे हैं उन्हें तो भोगना ही पड़ता है; पर समभावसे सहन नहीं होता, सत्संगकी कमी है। देहकी साताके लिये जीव अपनी कल्पनासे सुख प्राप्त करने जाता है तो दुःख हाथ लगता है। जीवने कौनसा दुःख सहन नहीं किया? विचार करने पर ज्ञात होता है कि उसने अनंतबार नरक आदिके दुःख भोगे हैं। संकल्प-विकल्प, बुरे परिणाम, आर्तध्यान, रौद्रध्यान, रति-अरति आ जानेसे अपनी क्या गति होगी? यह विचार जीवको आता ही नहीं है। यदि कोई जीव दुःख देता है तो वह हमारा मित्र है, हमें कर्मबंधनसे छुड़ाता है; परंतु तब सहनशीलता नहीं रह पाती। पूर्वबद्ध कर्म यदि अभी समभावसे, समतासे नहीं भोगेंगे तो पुनः अधिक कर्म बँधेगे और उनका भी उदय आयेगा ही, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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